
“दिल के तहखानों में…” एक आत्ममंथन की गहराइयों में उतरती मार्मिक कविता है, जो जीवन की यात्रा, टूटे सपनों, चुप रहकर झेली पीड़ाओं और अंततः भीतर जगी आशा की लौ को उजागर करती है।
उम्र के ढलते पड़ाव पर जब जीवन की साँझ दस्तक देती है, तब भी वह हिम्मत नहीं हारता—बल्कि अंधेरों के बीच उम्मीद का एक दीप जलाना चाहता है।
दिल के तहखानों में…
दिल के तहखानों में कुछ दीप जलाए हैं,
टूटे ख़्वाबों को भी मैंने गले लगाए हैं।
जिन राहों पर न छाँव थी, न साया कोई,
उन्हीं रास्तों से मैंने उम्मीद सजाए हैं।
वक़्त की ठोकरों से जो शीशा चटख गया,
उसी आईने में खुद को फिर से पाया।
कभी आँसू, कभी तन्हाई, कभी ख़ामोशी,
हर दर्द को मैंने अपना गुरूर बनाया।
भीड़ में अक्सर अकेला चलता रहा,
मन की बातों से बेवजह बंधता रहा।
न कोई पूछे कैसे जिया, क्यों रोया,
अपनी कलम से हर आह बुनता रहा।
कुछ पन्ने जिन्हें कोई पढ़ न सका,
वो मेरी आत्मा में गूंजते मेरे नग़में हैं।
हर शब्द, हर श्वास जो तुम सुनते हो,
वो मेरे अनुभव हैं, जो मुझसे जन्मे हैं।
अब जब जीवन की साँझ उतर आई है,
अंधेरों को मैं अपना दुश्मन मानता हूँ।
धूप-छाँव से भले दोस्ती कर ली है, मैंने,
पर रोशनी के लिए एक दीप जलाना चाहता हूँ।
(विजय वर्मा)
www.retiredkalam.com

Categories: kavita
very nice
LikeLiked by 2 people
Thank you so much.
LikeLike
Truly a touched piece—one I’d love to read again and again.
LikeLiked by 1 person
Thank you so much for your heartfelt words!
It means the world to me that the piece resonated with you so deeply.
Knowing that you’d want to read it again and again is the greatest compliment a writer can receive.
Your appreciation inspires me to keep writing with honesty and emotion.
Grateful for your kindness and connection. 🌸
LikeLike