# गाँव की स्मृतियों में बसा बचपन #

वो भारत देश है मेरा

मेरा बचपन भले ही शहर में बीता हो, लेकिन गाँव की यादें आज भी मेरे मन में जीवंत हैं। गर्मियों की छुट्टियों में या किसी शादी-ब्याह के अवसर पर गाँव जाने का जो अवसर मिलता था, वह मेरे जीवन के सबसे सुनहरे पलों में से एक होता था। गाँव का वातावरण, वहाँ की मिट्टी की खुशबू, वहाँ के लोग, सबकुछ एक अलग ही दुनिया का अहसास कराते थे।

गाँव का नाम था कोरजी चक। वहाँ की स्वच्छ हवा, निर्मल जल, और लोगों की निश्छल मुस्कान मन को सुकून देती थी। शहर की भाग-दौड़ से दूर गाँव की सरलता और अपनापन हमें वहाँ बार-बार खींच ले जाता था। हमारी दोस्तों की एक टोली थी, जो पूरे गाँव में घूमती, खेलती और तरह-तरह के रोमांचक अनुभवों को जीती थी।

गन्ने का रस और गुड़ की मिठास

गाँव की सबसे मजेदार बात थी गन्ने की पेराई का मौसम। जब खेतों में गन्ने कटने लगते और कोल्हू पर रस निकाला जाता, तब हम दोस्तों का ठिकाना वहीं होता। ताजे गन्ने का रस पीने का जो आनंद था, वह शायद किसी महंगे जूस से भी बढ़कर था।

जब रस को गर्म करके गुड़ बनाया जाता, तो उसकी खुशबू पूरे गाँव में फैल जाती। उस गरम-गरम गुड़ को खाने का स्वाद आज भी ज़ुबान पर है।

आम के बगीचे में बीता समय

गाँव में आम के बगीचे भी हमारी शरणस्थली हुआ करते थे। जैसे ही आम का मौसम आता, हम दोस्तों की टोली दिनभर बगीचे में खेलती, पेड़ों पर चढ़कर कच्चे-पक्के आम तोड़ती और चटनी या नमक के साथ उसका मजा लेती।

आम के रस से हाथ और मुँह गंदे हो जाते, लेकिन उन पलों की मिठास कभी धुल नहीं सकती।

किसान की संवेदनशीलता और पशुप्रेम

गाँव के किसानों का अपने पशुओं के प्रति प्रेम और दयालुता देखकर मन भर आता था। हल चलाते समय यदि कोई बैल गोबर या मूत्र करने की स्थिति में होता, तो किसान हल चलाना बंद कर देता था, ताकि बैल आराम से अपना नित्यकर्म कर सके।

यह उनकी संवेदनशीलता और पशुप्रेम को दर्शाता था। आज के समय में जब लोग मशीनों पर निर्भर हो गए हैं, तब इस तरह की मानवीय संवेदनाएँ कम होती जा रही हैं।

देसी घी और बैलों की सेवा

आज यदि हम देसी घी के शुद्धता की बात करें, तो गाँव में बनने वाला घी इतना शुद्ध होता था कि उसकी कीमत हजारों रुपये प्रति किलो भी रखी जाए, तो कम होगी। खास बात यह थी कि किसान अपने बैलों को भी घी पिलाते थे, जिससे उनकी सेहत बनी रहे और वे ताकतवर बने रहें।

यह केवल एक पशु-प्रेम नहीं, बल्कि उनके प्रति आभार जताने का भी तरीका था।

पक्षियों के प्रति सम्मान

गाँव के किसान सिर्फ पशुओं के प्रति ही नहीं, बल्कि पक्षियों के प्रति भी गहरी संवेदनशीलता रखते थे। टटीरी नामक एक पक्षी अपने अंडे खेतों की खुली मिट्टी पर देती थी। जब किसान हल चलाते हुए टटीरी की आवाज सुनते थे, तो समझ जाते थे कि वहाँ अंडे हैं। वे उस स्थान को बिना जोते छोड़ देते थे ताकि पक्षी सुरक्षित रह सके।

यह हमारे पूर्वजों की प्रकृति और पर्यावरण के प्रति गहरी समझ को दर्शाता था।

बैलों के प्रति अपार श्रद्धा

किसान अपने बैलों को परिवार का हिस्सा मानते थे। जब बैल बूढ़े हो जाते, तो उन्हें कसाइयों को बेचना शर्मनाक अपराध माना जाता था। बूढ़े बैलों की पूरी सेवा की जाती थी, उन्हें चारा दिया जाता था, और वे सम्मानपूर्वक अपने जीवन का अंतिम समय व्यतीत करते थे। जब कोई बैल मर जाता, तो किसान उसके लिए फूट-फूटकर रोते थे।

यह रिश्ता केवल श्रम का नहीं था, बल्कि आत्मीयता और प्रेम का भी था।

किसान का धर्म और आत्म-सम्मान

उस समय के किसान भले ही आधुनिक शिक्षा से दूर रहे हों, लेकिन वे आस्तिक और धर्मपरायण होते थे। वे अपने जीवन को कर्म और सेवा का पर्याय मानते थे। जब दोपहर में आराम का समय होता, तो सबसे पहले बैलों को पानी पिलाया जाता, उन्हें चारा दिया जाता, और फिर किसान खुद भोजन करता था। यह नियम हर किसान के जीवन का हिस्सा था।

गाँव की शिक्षाएँ और अनमोल जीवन दर्शन

वो गाँव जहाँ मैंने अपने जीवन के अनमोल पल बिताए, वह केवल एक स्थान नहीं था, बल्कि संस्कारों की पाठशाला था। वहाँ के किसान हमें सिखाते थे कि मेहनत, ईमानदारी और जीवों के प्रति दया से ही जीवन का असली आनंद प्राप्त किया जा सकता है।

उस गाँव में कोई करोड़पति नहीं था, लेकिन हर व्यक्ति अपने भीतर असीम संतोष और खुशहाली लिए रहता था।

आज के दौर में गाँव की स्थिति

आज जब हम अपने आधुनिक जीवन की ओर देखते हैं, तो महसूस होता है कि हमने अपने संस्कार, प्रेम, और प्राकृतिक संतुलन को कहीं खो दिया है। किसानों की वह सरलता, पशुओं के प्रति उनका सम्मान, और प्रकृति से उनका रिश्ता धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है। गाँवों में भी अब मशीनों ने हल की जगह ले ली है, और पशुओं की जगह ट्रैक्टरों ने। अब वह आत्मीय रिश्ता शायद कम होता जा रहा है।

मेरा अतुल्य भारत

वो भारत देश था मेरा, जहाँ गाँव केवल गाँव नहीं थे, बल्कि जीवन का आधार थे।”

हमारे गाँवों की संस्कृति, किसानों की आत्मीयता, और पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम आज भी हमें प्रेरित करता है कि हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें। हम भले ही आधुनिक हो रहे हैं, लेकिन हमें अपने पुराने मूल्यों को नहीं भूलना चाहिए।

आज भी जब मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ, तो मुझे वही गन्ने के खेत, आम के बगीचे, बैलों की घंटियों की आवाज, और गाँव के उन गलियों की महक महसूस होती है। मैं गर्व से कह सकता हूँ— मेरा गाँव, मेरा भारत, सच में अतुल्य था!”

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6 replies

  1. अब तो गांव में सारे बच्चे बाहर जाकर फैक्ट्रियो में काम कर रहे है अब वो युवा समिति कहा रही

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    • बिलकुल सही कहा आपने। अब तो गांव की तस्वीर ही बदल गई है। पहले जहाँ युवाओं की समिति होती थी, खेल-कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम और आपसी मेल-जोल की एक ऊर्जा होती थी, वहीं अब अधिकतर युवा रोजगार की तलाश में शहरों और फैक्ट्रियों की ओर चले गए हैं।

      ये सच है कि वक्त के साथ बदलाव जरूरी है, लेकिन गांव की सामूहिकता और सामाजिक जुड़ाव की जो परंपरा थी, उसका टूटना एक चिंता का विषय भी है। शायद समय आ गया है कि हम फिर से गांव के युवाओं को जोड़ने की कोई पहल करें — चाहे ऑनलाइन माध्यम से हो या त्योहारों के समय एकत्र होकर कोई नई शुरुआत की जाए।

      आपके विचारों ने एक भावुक याद दिला दी। 🙏🌿

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  2. very nice

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  3. Nice post 💜
    Grettings regards 🌞
    Good bless you 🌹

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