
“ख़ुद से मुलाक़ात” — यह ग़ज़ल आत्मचिंतन, आत्म-स्वीकृति और जीवन की उन सच्चाइयों को दर्शाती है, जो अक्सर हमारी नज़रों से छिपी रह जाती हैं। जब हम दुनिया में रौशनी ढूंढते हैं, तब हमें सबसे पहले अपने भीतर झाँकना चाहिए।
यह ग़ज़ल उसी सफ़र की कहानी है — जहाँ सवालों का सामना करके, खुद को पहचान कर, हम अपनी ज़िंदगी को और सरल, और सुंदर बना सकते हैं।

“ख़ुद से मुलाक़ात”
अपनी ज़िंदगी और भी आसान हो जाती,
अगर वक़्त पे ख़ुद से मुलाक़ात हो जाती।
आईनों में जो अक्स धुँधला सा था,
उसमें थोड़ी सी और पहचान हो जाती।
हर किसी से शिकायत न होती कभी,
गर चेहरे पे हल्की मुस्कान हो जाती।
हम यहाँ-वहाँ ढूँढते रहे रौशनी को,
बस अंधेरे में ही थोड़ी जान हो जाती।
सवालों से डर कर क्यों बैठा रहा मैं,
कोशिश करता तो पहचान हो जाती।
हर क़दम पे क्यों ठोकरें खाई मैंने,
ज़माने के साथ थोड़ी उड़ान हो जाती।
हम तो किताबों में ढूँढते रहे खुदा को,
नज़रों में उनकी इंसानियत आ जाती।
अब तो ये हाल है कि ख़ुद से ही डरते हैं,
काश पहले ही थोड़ी पहचान हो जाती।
( विजय वर्मा )

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very nice
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Thank you so much.
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💯
Happy and blessed Sunday 🌅
Grettings 🇪🇦🌎
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Thank you so much.
I also wish you better days ahead.
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