
यह कविता अपनों की बेरुखी और रिश्तों में बदलाव के दर्द को व्यक्त करती है। कविता में, कवि अपनों से मिलने वाले दर्द और अपने अकेलापन का वर्णन करता है।
इस सच से दुखी है कि बड़े बुजुर्ग जो कभी उनके जीवन का आधार थे, अब बेगाने हो गए हैं। कवि पूछता है कि क्या यही जीवन का सच है, क्या यही प्यार का रिश्ता है? जहाँ अपनापन और रिश्तों की गरमाहट नहीं है, वहाँ सिर्फ स्वार्थ और कड़वाहट है।

बेरुखी का दर्द
अपनों की बेरुखी से
हर पल
टूट रहा है विश्वास
आहत है मन,
दर्द का एहसास
साँसो की गहराइयों तक है,
और मैं
खो रहा हूँ उसमें
धीरे धीरे …….
दादा जी कहते थे
पकने के बाद फल मीठे होते है
पर ऐसा क्यों होता है
कि इंसान रूपी फल
पकने के बाद
कड़वा हो जाता है ?
बड़े – बुजुर्ग ,
जिनहोने हमे जीवन दिया
जिनकी छाया में पले-बढ़े हम,
आज वो बेगाने हो गए,
अपनों के बीच अकेले रह गए |
क्या इसे ही
जीवन का सच माने ?
क्या इसे ही
प्यार का रिश्ता जाने ?
जहां न अपनापन है ,
न रिश्तों की गरमाहट |
है तो सिर्फ
स्वार्थ और कड़वाहट |
(विजय वर्मा)
Categories: kavita
ये आज की सच्चाई है ।ऐसा ही हो रहा है।
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आप ने सही कहा |
हमारे जैसे बुजुर्ग के लिए तो असहनिए है |
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सच में ख़ुद्दारी बहुत अहम है ।सेल्फ रिस्पेक्ट
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फिर भी बेरुखी का दर्द तो महसूस होता ही है |
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Sundar Kavita Berukhi ka Dard.Dard ka baat kuch hota hai.
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Thank you so much, dear.
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