# मेरा ही अक्स है # 

कभी – कभी ऐसा महसूस होता है कि  बाहर चारों तरफ खुशियाँ है पर मेरे अंदर नहीं | मेरा मन हमेशा किसी न किसी बात से आहत  होता रहता है | ऐसा क्यों होता है, पता नहीं |

मैं तो खुश होना चाहता हूँ  फिर भी उदासी आ जाती है | कुछ तो है जो अंदर ही अंदर खाए जाती है |शायद  इसीलिए मेरा मन हमेशा तनहाइयों में  भटकता रहता है |  कुछ शब्दों को लिख कर मन को शांत करने की कोशिश है यह कविता |

भूरी आँखों वाली “वो”

जब भी मुझे प्यार से देखती है

उसकी मुस्कान मेरी दुनिया रौशन कर देती है |

काले बालों वाली “वो”  

जब खिलखिलाती है ,

मेरे कानों में मृदंग बजने की ध्वनि सुनाई देती है |

घुंघराले बालों वाली “वो”

 जब भी रोती है,

उसके दिल में सिसकता दर्द, मुझको उदास कर देती है |

मुस्कान बिखेरने वाली “वो”,

जब सुनी निगाहों से आसमान को घूरती है .

 बादलों के बीच भूचाल सा पैदा कर देती है |

कजरारे आंखों वाली “वो”

जब रूढ़िवादी भावनाओं से घायल होती है

मेरे दिलो – दिमाग में हल चल सी पैदा कर देती है |

खुशबू बिखेरने वाली “वो”

जब लोगों के खंजर से घायल होती है

तब, मेरा मन विद्रोही बन जाता है

क्योंकि “वो” और कोई नहीं, मेरा ही अक्स होता है |

(विजय वर्मा)

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2 replies

  1. Sundar kavita 👏🏻👏🏻

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