
कभी – कभी ऐसा महसूस होता है कि बाहर चारों तरफ खुशियाँ है पर मेरे अंदर नहीं | मेरा मन हमेशा किसी न किसी बात से आहत होता रहता है | ऐसा क्यों होता है, पता नहीं |
मैं तो खुश होना चाहता हूँ फिर भी उदासी आ जाती है | कुछ तो है जो अंदर ही अंदर खाए जाती है |शायद इसीलिए मेरा मन हमेशा तनहाइयों में भटकता रहता है | कुछ शब्दों को लिख कर मन को शांत करने की कोशिश है यह कविता |

भूरी आँखों वाली “वो”
जब भी मुझे प्यार से देखती है
उसकी मुस्कान मेरी दुनिया रौशन कर देती है |
काले बालों वाली “वो”
जब खिलखिलाती है ,
मेरे कानों में मृदंग बजने की ध्वनि सुनाई देती है |
घुंघराले बालों वाली “वो”
जब भी रोती है,
उसके दिल में सिसकता दर्द, मुझको उदास कर देती है |
मुस्कान बिखेरने वाली “वो”,
जब सुनी निगाहों से आसमान को घूरती है .
बादलों के बीच भूचाल सा पैदा कर देती है |
कजरारे आंखों वाली “वो”
जब रूढ़िवादी भावनाओं से घायल होती है
मेरे दिलो – दिमाग में हल चल सी पैदा कर देती है |
खुशबू बिखेरने वाली “वो”
जब लोगों के खंजर से घायल होती है
तब, मेरा मन विद्रोही बन जाता है
क्योंकि “वो” और कोई नहीं, मेरा ही अक्स होता है |
(विजय वर्मा)

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Categories: kavita
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