
यह कविता एक गहरे आत्म-संघर्ष और उस दर्द की कहानी है जिसे कवि ने खामोशी में सहा है। अपने आंसुओं को छिपाकर, अकेलेपन से लड़ते हुए और ख्वाबों को पीछे छोड़कर वह जीवन को मुस्कुराते जीना सीख रहा है |
सच है, जीवन में चाहे कितनी भी मुश्किलें आएं, हमें खुद को संबल देना और आगे बढ़ना आना चाहिए।
दर्द की खामोशी
जो गुज़री है मुझ पर,
उसे किसी ने जाना नहीं।
खामोशियों में डूबा था मैं,
मुझे किसी ने पहचाना नहीं।
आंखों में छिपे रहे मेरे आंसू,
बहना उन्हें स्वीकार न था।
मैं खुद से ही लड़ता रहा,
किसी को मुझसे प्यार न था।
अनजानी राहों पर चलता रहा,
अपनी ज़िंदगी से उलझता रहा।
दर्द ही तो मेरा अपना था,
चुपचाप उसे सहता रहा।
ख्वाबों का शहर बिखर गया,
मुझे सच का साथ निभाना था।
हर दर्द को मैं पी गया,
क्योंकि मुझे मुस्कुराना था।
मेरी यादें बन गईं दास्तान,
मुझे खुद को आज़माना था।
मेरे ज़ख्म भी मेरे अपने थे,
मुझे खुद ही मरहम लगाना था।
बीता हुआ सब भुलाता चला गया,
अपना गीत गाता चला गया।
जब होगी उनसे मुलाकात, पूछेंगे,
अभी वो ठोकरें खाता चला गया।
(विजय वर्मा )
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Categories: kavita
very nice.
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Thank you.
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Very nice.
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Such a powerful poem!
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Thank you so much.💕
I’m glad the poem’s message resonated with you. Your kind words mean a lot!
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