#मैं बुढ़ा और लाचार हो गया हूँ #

दोस्तों,

यह एक कविता है जो एक व्यक्ति के अंतिम दिनों की अवस्था को बयान करती है। इस कविता में व्यक्ति अपने जीवन के कई पहलुओं को याद करता हुआ, अपनी बूढ़ापन और लाचारी के बारे में सोचता है।

उसे अपने जीवन में कुछ बातें सीखने का अनुभव होता है जो वह अपनी आने वाली पीढ़ियों को सलाह देने के लिए उपयोग करता है। मुझे आशा है आप इसे पसंद करेंगे |

मैं बुढ़ा और लाचार हो गया हूँ 

  जीवन के सफ़र पर चलते – चलते

   आज इस मुकाम पे पहुँच गया हूँ

   कुछ लोगों के लिए उम्र तो बस नंबर है

    मैं तो अनुभवों की किताब बन गया हूँ |

   आज जब किताब के पन्नों को पलटता हूँ

   तो  हर पन्ने पर नए – नए सपने पाता हूँ 

आंखों पर ऐनक  है और है सुनहरे सपने भी

शरीर थका – थका सा है, दूर हो रहे अपने भी |

अपनों के खंजर से ही घायल हो गया हूँ

उनकी बेवफाई का मैं कायल हो गया हूँ

सचमुच, अब बेबस और लाचार हो गया हूँ

लगता है कि बुढ़ा और बेकार हो गया हूँ |

आज अपनी उम्र से संघर्ष कर रहा हूँ

क्यों अपने भविष्य को याद कर डर रहा हूँ ?

जानता हूँ ,जो होना है वो  होकर ही रहेगा

क्यों मैं समय से पहले तिल – तिल मर रहा हूँ ?

(विजय वर्मा )

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Categories: kavita

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21 replies

  1. 💗

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  2. शरीर थका – थका सा है, दूर हो रहे अपने भी |
    अपनों के खंजर से ही घायल हो गया हूँ
    उनकी बेवफाई का मैं कायल हो गया हूँ
    Kya lines kahi hai sir

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  3. Very nice composition

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  4. Sundar kavita.Budhapa ko koi chhod nahi sakte.Dukh kisiko bante.Uska koi samadhan nahi.Daant nikal jaate.Khana kha nahi sakate.har chij ke baar me control.

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