# कभी कभी सोचता हूँ #

मन में विचारों का चलते रहना अनिवार्य है, यह जागरुकता और क्रिया का सर्वोच्च रूप है। विविध विचारकों ने अपने विचारों से ही विभिन्न सभ्यताओं का निर्माण किया है। हमारे सारे संबंध उस उपयुक्त, अनोपुयुक्त विचारधारा पर ही आधारित हैं।

हम सब स्वीकार करते हैं कि जब हमारे मन में विचार नहीं चल रहे होते है तो हम सोते हैं, निष्क्रिय जीवन जीते हैं या दिवास्वप्न देखते हैं;

और जब हम जाग्रत होते हैं तो सोचते हैं, कार्य करते हैं, जीते हैं, लड़ते हैं—केवल इन्हीं दो अवस्थाओं को हम जानते हैं ।

आदर्श स्थिति तो यह है कि हम दोनों अवस्थाओं से परे हो जाएं, …विचार से भी खाली तथा सक्रियता से भी … .

यह .कैसा रहेगा ?……

कभी कभी सोचता हूँ

सोचता हूँ ज़िन्दगी को बस यूँ ही गुज़र जाने दूँ

इजहारे मुहब्बत को अपने होंठो पे न आने दूँ

कल शायद नई  सुबह हो , और नए फूल खिले

आज तो बस आँसुओं को यूँ ही बिखर जाने दूँ

आज तक समझ नहीं पाया तुमसे क्या सम्बन्ध है

हंसने और रोने के बीच आज भी  क्यों द्वंद है ?

प्यार के लिए उठाये है हमने लाखों जुल्मो-सितम

तड़प तड़प कर जीने का एक अलग ही आनंद है |

जब भी चर्चा होती है तुम्हारी, कलम ठहर जाते है

मेरे प्यार के सपने मुझे अक्सर ही रुलाते है

तुम कहो ना कहो मुझसे अपने राज की बात

तुम्हारी ख़ामोशी , इशारों में बहुत कुछ कह जाते है ,

तुम्हारे भरोसे छोड़ा है जग .. मुझे मंजिल का पता नहीं

करना मुहब्बतों पर ऐतबार,.. होती कोई खता नहीं |

लाखो सवाल बाकी है अपनी रुसवाइयों को लेकर

तुम्हारे आँखों में मेरे लिए क्या प्यार है, पता नहीं   |

विजय वर्मा

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Categories: kavita

4 replies

  1. अच्छी कविता।

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  2. Sundar!!!

    Kavita me Gehraai he!

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