एक सवाल ..

(के. के.. की कहानी … के. के. की जुबानी )

दोस्तों,..तुम्हारा दोस्त कृष्णा कुमार उर्फ़ के. के. आज तुम सबों के बीच  हाज़िर है अपने संस्मरण के साथ,   जिसका शीर्षक है  “एक सवाल” ..

आजकल व्हाट्सअप पर vijay verma का संस्मरण पढ़ रहा हूँ…बड़ा मजा आ रहा है / क्या मस्त लिखता है, लगता है… बुढ़ापे में उसकी जवानी लौट आयी है /

मैं भी जब संस्मरण पढता हूँ या दोस्तों के द्वारा पोस्ट किया गया फोटो देखता हूँ तो मैं भी पुरानी यादों में खो जाता हूँ और मन करता है कि मैं भी पुराने दिनों में “रांची एग्रीकल्चर कॉलेज” के हॉस्टल में पहुँच जाऊँ  और वहाँ बिताये पलों को एक बार और जिऊं / पर ऐसा संभव है क्या ?  

हाँ, एक सवाल जो उस समय मेरे सामने आया था और जिसका जबाब आज तक मुझे नहीं मिला है ..मुझे अक्सर परेशान  करता रहता है / आज सोच रहा हूँ कि तुम दोस्तों से ही जबाब पूछ लूँ / शायद जबाब मिल जाये /

  सवाल क्या है, बताने से पहले एक छोटी सी घटना या यूँ  कहो कि एक संस्मरण सुनाना चाहता हूँ …,क्योंकि सवाल उसी से जुड़ा हुआ है /

मुझे बचपन से दो चीजों का शौक रहा है / एक खाने का {तभी तो मेरे यार लोग मुझे “भोजन भट्ट” भी बुलाते हैं } और दूसरा फिल्म देखने का /

लगभग हर रविवार को मैं रांची जाता था पिक्चर देखने / एक हॉल से पिक्चर देख कर दुसरे और फिर दुसरे से निकल कर तीसरे हॉल में घुस जाता था / मुझे याद है इन्ही सब कारणों से मेरे साथी फिल्म देखने में मेरा साथ नहीं देते थे..या पहली फिल्म तो शायद मेरे साथ देख भी लेते थे लेकिन उसके बाद साथ छोड़ देते थे /

एक रविवार की बात है,  मैं  राँची में एक शो १२ से ३ बजे का देख कर हॉल से निकला था / मेरे कदम तेज़ी से दुसरे हॉल (शायद सुजाता) की तरफ बढ़ रहे थे /

चूँकि दो हॉल के बीच  की दूरी  ज्यादा थी अतः टेंशन में था , कहीं फिल्म शुरू ना हो जाये / मैं ज़ल्दी से जल्दी हॉल पहुँचना चाहता था, वहाँ पंहुचा तो पिक्चर शुरू हो चुकी थी ज़ल्दी से टिकट लिया और लगभग दौड़ते हुए हॉल में दाखिल हुआ / लाइट ऑफ थी अतः भीतर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था ….

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तभी सीट पर बैठाने  वाला अटेंडेंट टोर्च की रौशनी में टिकट चेक किया और एक खाली कुर्सी की तरफ टोर्च की रौशनी से ईशारा  किया / मैं टोर्च की रौशनी में धीरे धीरे बढ़ा और अपनी सीट पर बैठ गया / अभी भी मुझे ठीक से  दिखाई नहीं दे  रहा था /

मैंने रुमाल निकाल कर पसीना पोछा और रिलैक्स होने के लिए सीट पर अकड़  कर बैठा और पीठ को सीट के पिछले हिस्से पर टिकाया /

तभी मेरा दाहिना कंधा  का किसी से स्पर्श हुआ,  लगा कोई लड़की बैठी है / अभी  भी मेरी आँखे अँधेरे में देखने को अभ्यस्त नहीं हुई थी पर नाक में भीनी भीनी खुशबू आ रही थी जो ये बता रही थी कि बगल में कोई लड़की बैठी है  / कौन ? पता नहीं,  पर दिल में हलचल तो मच ही गया था /

तभी देखा एक आदमी मेरे पैरों के पास से मुझे क्रॉस कर आगे की सीट पर जा रहा है / उससे बचने के लिए मज़बूरी वश मुझे पीछे होना पड़ा और शारीर को पीछे करना पड़ा / इस बार फिर मेरा  दाहिना  बांह उसके बाएँ  बांह से टकराई / यार गजब हो गया …लगा जैसे करेंट लग गया हो …सर घुमने लगा / मानो , मैं स्वर्ग में आ गया हूँ और अप्सरा मेरे बगल में बैठी हुई है  /

अब. पिक्चर क्या ख़ाक देखता / बस मेरी नज़रे तो सामने परदे पर ही थी  पर मैं कनखियों से उसे देखने की कोशिश कर रहा था / अब आँखे भी अँधेरे में देखने को कुछ अभ्यस्त हो गई थी और उसकी एक धुंधली सी आकृति अब नज़र आ रही थी /

मैं सोच रहा था फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य आये जिससे हॉल में काफी प्रकाश हो जाये ताकि मैं बगल में बैठे हूर का  दीदार कर सकूँ  /

और तभी भगवान् ने मेरी मुराद पूरी कर दी / परदे पर ऐसा दृश्य आया जिससे हॉल में थोडा उजाला हो गया और मेरी आँखे उसे देख कर चुन्धियाँ गई / बगल में एक गजब की सुंदर लड़की सलवार सूट में बैठी थी / उम्र यही कोई १७ या १८ साल की रही होगी / उसके बगल में एक औरत बैठी थी /

शायद उसकी माँ रही होगी / मैं और कुछ देखता की दृश्य बदल गए और हॉल में पहले की तरह रौशनी कम हो गई /

पर फिर भी आँखें बिना रौशनी के भी चीजों को ज्यादा अच्छे से देख पा रही थी /

यह एहसास तो गुदगुदा रही थी कि मेरे पहलु में एक हसीना बैठी है / गोरे गोरे मुखड़े और काले लम्बे बाल …गजब की ख़ूबसूरत लग रही थी वो /

मैं पिक्चर क्या खाक देखता / आँखे बंद कर बार बार पीछे होकर अपने दाहिने बांह को पीछे कर रहा था ताकि उसका स्पर्श हो / मैं थोडा डर  भी रहा था अतः शीघ्र ही अपने ओरिजिनल  पोजीशन में लौट आता था /      कुछ देर तक ऐसा ही चलता रहा / हाँ ये ज़रूर था कि जब भी मेरा कंधा  उसके कंधे से सटता  वो सिकुड़ जाती और दूर हटने का प्रयास करती /

मेरा दिल जोर से धड़क रहा था …सोच रहा था अब आगे क्या ..? डर  भी लग रहा था कि कहीं लड़की कुछ बोल न दे या फिर अपनी माँ को न बता दे /

कुछ देर तक तो ख़ामोशी रही , फिर एक आदमी  हमारी रो से बाहर निकल रहा था / जब मेरे पास से गुज़रा  तो बस इस बार जान बुझ कर अपने कंधे फैला कर पीछे को खिसका / मेरी दायीं बांह उसकी बायीं बांह से अच्छे से टकराई  / उसके नाज़ुक और गुलगुले बाहों को मैंने अच्छे से महसूस किया / इस बार उसकी बांह  मेरी बांह से सटी रही /

उसने बांह को हटाया नहीं / मेरे लिए यह आश्चर्य की बात थी, क्योंकि पहले तो वह छुईमुई की तरह अपने में सिमटने की कोशिश करती थी /

तो क्या मामला कुछ आगे बढ़ रहा है ? मन ने कहा …बेटा,  ऐसा मौक़ा रोज़ रोज़ नहीं मिलता / थोडा आगे बढ़… बढ़ा हाथ और  रख उसके कंधे पर /

पर मुझे डर  भी लग रहा था / सोच रहा था ..कहीं ऐसा न हो कि मेरा हाथ उसके कंधे पर पड़े और उसका हाथ मेरे गाल पर / बड़ी बेइज्जती हो जाएगी /

मैंने सोचा …चलो देखते है …अभी तो इंटरवल होने वाला है / इंटरवल के बाद देखते है …उसके कंधे पर हाथ रखने की कोशिश तब करेंगे /

और तभी इंटरवल की घंटी बजी और हॉल में लाइट ऑन  हो गई /

मैंने तिरछी नज़र से बगल में देखा और लगा की ४४० वोल्ट का करंट लग गया हो / मैंने घूम कर बगल में देखा / बगल में उस लड़की की माँ बैठी थी और लड़की उसके बाद /

अरे. या कैसे और कब हुआ ? कब उन्होंने अपनी सीटें बदल ली और मुझे पता भी न चला /

ओह …तो ये बात थी ..मैं भी कहूँ की वह लड़की क्यों मुझसे सट रही है और अपने कंधे को नहीं हटाई / और बाद के स्पर्श में क्यों उसके कंधे कुछ भारी और गुलगुल लग रहे थे /

उफ़ ..अब आगे की क्या सुनाऊँ ?

पर तुम पूछोगे नहीं तो पर भी सुनाना तो पड़ेगा ही,  तभी तो कहानी ख़त्म होगी / मैं इंटरवल में ही पिक्चर छोड़ कर हॉल से बाहर आ गया और होस्टल लौट गया / दुसरे दिन यानी सोमवार को टेस्ट था / टेस्ट अच्छा गया और अच्छे नम्बर भी आये  /

अब रही सवाल की बात तो आज  तक यह सवाल मेरे लिए उलझन बने हुए है  कि आखिर उन दोनों ने हॉल में अपनी सीटें कब बदली और मुझे पता क्यों नहीं चला ?

जबाब देने वाले को एक किलो गुलाब जामुन …एक किलो रसगुल्ला और एक मुर्ग मुस्सलम ईनाम मिलेगा/

और हाँ, यह बताना तो मैं भूल ही गया कि ईनाम लेने के लिए किशन गंज …के. के.  के पास आना होगा /

                                                                                            तुम्हारा दोस्त….कृष्ण कुमार ..

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