# कहाँ गए वो दिन #….5

हँसकर जीना दस्तूर है ज़िन्दगी का

एक ही किस्सा मशहूर है ज़िन्दगी का

बीते हुए पल कभी लौट कर नहीं आते

यही सबसे बड़ा कसूर है ज़िन्दगी का

रोने का टाइम कहाँ ..सिर्फ मुस्कुराओ यारों,

क्योंकि, ये ज़िन्दगी दुबारा ना मिलेगी यारों |

पिछला blog पर बहुत मित्रों ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी…लेकिन एक मित्र ने कहा की आगे कि घटना से जल्द अवगत कराएँ , शायद जिज्ञासा बढ़ गई होगी …पिछली बातों का सिलसिला जारी रखते हुए, आगे की  एक और कड़ी ….

रात में  इस नए मकान में बड़ी अच्छी नींद आयी,  शायद इसके दो वजह थे ..पहला कि सुबह जल्दी उठ कर लोटा लिए खेतों में भागने की  जद्दोजहद  नहीं थी | और दूसरी बात कि आज  बैंक  जाने की  जल्दी नहीं थी क्योकि आज रविवार थी |

source: google.com

मैं  सुबह उठा तो करीब सात बज रहे थे,  तो चाय पीने  की  तलब हुई |..

बस, फिर क्या था ..कपडे पहने और घर से  निकल पड़े उस  “नन्हकू चाय” वाले की  दुकान पर.| उसकी दूकान घर से कुछ दुरी पर ही था |

और वहाँ पर रोज सुबह हमारे बैंक के  स्टाफ शर्मा जी , सिंह जी,  कालू राम और मैं , सभी लोग की  इसी दूकान पर चाय के साथ बैठक होती थी और करीब  आधे घंटे तक गप्पे मारते  थे |

चूँकि सभी बैंक स्टाफ यहाँ  अकेले ही रहते थे , इसलिए यहाँ रोज का चाय पर चर्चा कार्यक्रम चलता था और हां पुरुषोत्तम अग्रवाल जिसकी गल्ले की  दुकान सामने ही थी वो भी हमलोगों के बीच चाय में शरीक हो जाया करता था |

चाय पीने  के बाद वापस घर पहुँचा ही था कि देखा मेरे घर के सामने भीड़ लगी हुई थी, |

सब लोग अपने अपने घड़ा, बाल्टी लेकर वहाँ  भीड़ लगा कर पानी भर रहे थे | मैं उनको उत्सुकता से देख ही रहा था कि पिंकी (मांगी लाल जी की  छोरी) मेरे पास आयी और बोली कि आप भी पानी भर कर घर में store कर लो | ..

इस नल में पानी एक घंटे के लिए आता है और फिर शाम में एक घंटा के लिए |

मैं भी जल्दी से प्लास्टिक की  बाल्टी लेकर वहाँ खड़ा हो  गया | वहाँ सभी गाँव की  औरतें पानी भर रही थी ,एक मैं ही शहरी छोरा उनके बीच था |

सभी घूँघट निकाले खड़ी थी  इसलिए किसी का चेहरा नहीं दिख रहा था | मुझे देखते ही  सभी एक साइड हो गए ताकि मैं पानी भर सकूँ | पानी लेकर उसे घर में रखे घड़े को  भर  दिया |

थोड़ी देर बाद, अचानक बीच का दरवाज़ा खुला और एक थाली में रोटी और सब्जी लिए पिंकी मेरे सामने थी | उसने पास पड़े स्टूल पर थाली रखते हुए बोली कि नहा धोकर खा लेना |

और हां, यह जो दो घड़े है, इसमें पीने का पानी रोज़ बदलना होगा, वर्ना इसमें कीड़े पड़ जाते है |

..और स्नान वगैरह  के लिए पानी storage के लिए ये बड़ा सा under ground टंकी बना है…..उसने हाथ के इशारे से आँगन में बने टंकी को दिखाया |

मैं पास जाकर देखा था तो सचमुच बहुत बड़ा टंकी था , जिसमे मैं डूब भी सकता था | तो क्या बाहर के नल से पानी लाकर इस टंकी में भरना होगा ? जबाब में उसने हाँ में अपना सिर हिलाया |  

मैंने घबरा कर ज़िन्दगी से पूछा कि -..तू इतनी कठिन क्यूँ है ?

ज़िन्दगी ने हंस कर कहा …क्योंकि दुनिया आसान चीजों की  क़द्र नहीं करती |

अब मैं नहा – धोकर पिंकी के दिए खाना खाया तो मज़ा आ गया | बहुत दिनों बाद घर का बना स्वादिस्ट भोजन, ख़ास कर पापड़ की  सब्जी मैं पहली बार खाया |

मैं मन ही मन पिंकी को धन्यवाद् दिया, जो बहनों में सबसे बड़ी थी, और घर की  सारी जिम्मेवारी उसी पर थी | खाना खाकर थोडा आराम कर ही रहा था कि फिर बाहर का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया | मैं अलसाया हुआ दरवाज़े को खोला तो एक अधेड़  सी औरत सामने खड़ी  थी |

उसने पूछा कि इस मकान में  आप नए आए हो ? मैं ने हाँ में सिर हिलाया तो उसने कहा कि आप के मकान के पीछे ही हमारी झोपडी है |

आप को खाना बनाने और घर के साफ – सफाई के लिए लोग चाहिए तो मैं इंतज़ाम कर दूंगी | मैं टालते हुए बोल दिया ..ठीक है कल सुबह बात करेंगे | और मैं आराम करने चला गया |

मैं जब सो कर उठा तो उस औरत की  बाते ठीक लगी | घर का इतना सारा काम, झाड़ू – पोछा से लेकर खाना भी तो बनाना पड़ेगा | पिंकी तो रोज़ शायद खाना नहीं भी खिलाये |

ऐसा सोच कर मन बना लिया कि कल उस औरत से बात करूँगा | और घर के काम काज के लिए किसी को रख लिया जायेगा |

शाम हो चली थी और मुझे उस नन्हकू चाय वाले की  याद आ गई | मैं तैयार होकर बाहर जाने वाला ही था कि फिर बीच का दरवाज़ा खुला |

हाथ में  चाय और खाखरी (राजस्थानी व्यंजन) लिए पिंकी प्रकट हो गयी | मैं हँसते हुए पूछ  लिया कि तुम इतना कष्ट  क्यों करती हो ? उसने  मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोली कि सब के लिए चाय बना रही थी तो आप को भी शामिल कर लिया |

सचमुच दुनिया उतनी बुरी  नहीं है जीतना हमलोगों ने इसे बना दिया है | वरना आज के ज़माने में भी दूसरों के दुःख तकलीफ को महसूस करने वाले लोग भरे पड़े है |

मैं दिल से उसे धन्यवाद दिया और खाखरी का स्वाद चखा, वो भी पहली बार | वाह, मज़ा आ गया |आज का दिन ठीक जा रहा था |

शाम का वक़्त, मैं सीढ़ियों के सहारे छत पर चला गया | दोनों घरो का छत common था, सो बच्चे सब खेल रहे थे, मैं भी उनके साथ बच्चे बनकर खेलने लगा |

छत से खड़े चारो तरफ का नज़ारा देखा तो मंत्रमुग्ध हो गया ..चारो तरफ जितनी दूर नज़रे गई बस सरसों के खेत में पीली फूलों की चादर ओढ़े गजब का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था ..

.सचमुच शहर की कोलाहल भरी चकाचौंध ज़िन्दगी की तुलना में इस गाँव की शांति और ऐसी खुबसूरत दृश्य  मन को सुकून दे रही थी |..कुछ पल के लिए घर की  दुरी का एहसास जाता रहा..(क्रमशः )…..

कभी  ख्वाब बन आती.. कभी  याद बन आती

कभी वरिश कि बुँदे ,कभी घटा बन आती

कभी कविता बन आती.. कभी गजल बन आती

ए मेरे नटखट  बचपन ..इस तरह क्यों है सताती..

इससे आगे की घटना जानने के लिए नीचे दिए link पर click करें….

एक अकेला इस शहर में….6

BE HAPPY… BE ACTIVE … BE FOCUSED ….. BE ALIVE,,

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2 replies

  1. Loved that short poem in the beginning!!!

    Liked by 1 person

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