
आज सुबह सो कर उठा तो मेरा मन बहुत घबरा रहा था | काका के बिना अकेले इस घर में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था | रात में भी सामने चाय की दुकान के पास कुत्ता रो रहा था |
लोग कहते है कि कुता का रोना अपशकुन होता है |
इस लॉक डाउन में सब कुछ तो ऐसी की तैसी हो रखी है | भगवान् अब और कितने बुरे दिन दिखाएंगे, पता नहीं |
मैं मन ही मन बोला और बेमन से बिस्तर को छोड़ कर सुबह की ताज़ी हवा के लिए झोपडी से बाहर कदम ही रखा था कि मुझे देख कर लोग मुँह पर रुमाल बाँध कर इधर उधर खिसकने लगे |
ऐसा लगा जैसे मैं कोई अछूत हूँ या प्रेत – आत्मा |
अजीब ज़िन्दगी हो गई है, भाई चारा तो जैसे समाप्त ही हो गया है | कोई किसी के पास नहीं जाता, रास्ते में देख कर एक दुसरे से मुँह फेर कर चल देते है | घर से लोग- बाग़ तो निकलना ही बंद कर दिया है |
तभी मैंने देखा …सोहन काका जो सामने फुटपाथ पर चाय की दूकान लगाते थे… अपनी दूकान की सारी चीज़े हटा रहे थे | शायद वो अपनी दूकान समेट रहे थे |
पूछने पर उन्होंने बताया …. जब चाय पिने वाला ही कोई नहीं है तो दूकान खोल कर क्या करूँ | अब इस दूकान को हमेशा के लिए बंद करने के अलावा और कोई चारा नहीं है |
पर काका, आपकी रोज़ी रोटी कैसे चलेगी ?…..मैंने पूछा |
ऐसा लगा जैसे उनकी दुखती रग पर हाथ रख दी हो | मेरी बात को सुन कर वो आकाश की तरफ देखने लगे , जैसे कह रहे हो इसका जबाब तो ऊपर वाला ही दे सकता है |
सोहन काका परेशान हो कर बोले ..बेटा , अब मैं क्या कहूँ | अब आगे तो ऊपर वाले की मर्ज़ी है | मुझे लगता है कि अगर मैं यहाँ यूँ ही पड़ा रहा तो भूखे – प्यासे ऐसे ही मर जाऊँगा |
तो ऐसा क्यों ना करूँ कि अपने गाँव चला जाऊं | .
गाँव में तो कम से कम दो जून की रोटी मिल ही जाएगी ….यहाँ की तरह भूखे तो मरना नहीं पड़ेगा ?
मैं उनकी बात को पूरी तरह समझ नहीं सका कि वो क्या कहना चाह रहे है |
अतः मैंने फिर पूछा ….काका अब आगे की क्या सोच रहे है ?

इस पर काका बोले ..बेटा, मैं अपने गाँव वापस जाने की सोच रहा हूँ …अगर भूख और इस बीमारी से मरना ही है तो अपने परिवार वालों के बीच क्यों ना मरुँ |
पर काका आप तो शायद कानपूर देहात के रहने वाले है ..और वह यहाँ से करीब ४०० किलोमीटर दूर है | वहाँ जायेंगे कैसे ? ट्रेन बंद है, बस बंद है और यातायात की सारी सुविधाएं बंद है |
इस पर काका बोले …..हाँ बेटा, तुम्हारा कहना बिलकुल सही है | गाँव जाने के सभी साधन बंद है पर अपना पैर तो सही सलामत है |
सुना है बहुत सारे मजदूर मुंबई और गुजरात से पैदल ही बिहार- यू पी के लिए कुच कर गए है | अतः मैंने भी सोच लिया है कि मैं भी पैदल ही बीबी बच्चो को साथ लेकर कानपूर अपने गाँव कूच कर जाउँगा |
उनकी बात सुन कर मैं सकते में आ गया | क्या ऐसा हो सकता है ?
सोहन काका अपने परिवार को साथ लेकर बिना खाना पानी साथ लिए इतनी लम्बी दुरी की यात्रा करने की हिम्मत कैसे कर ली | …मरता क्या ना करता वाली कहावत सच ही है |
मेरे मन में भी गाँव लौट जाने का विचार आने लगा ….मेरा भी गाँव यहाँ से करीब ४०० किलोमीटर दूर है |. मैं भी पैदल जा सकता हूँ |
मेरी उम्र तो सोहन काका से कम ही है और मुझमे उनसे ज्यादा ताकत भी है, पर मेरी परेशानी यह है कि रघु काका अभी हॉस्पिटल में है और वो जब तक ठीक नहीं हो जाते हम यहाँ से कहीं भी नहीं जा सकते |
मैं इन्हों सब बातों को सोचता हुआ घर में वापस आया तो मोबाइल की घंटी बज उठी | मोबाइल चार्जिंग में लगा हुआ था | मैं दौड़ कर मोबाइल के पास गया और देखा तो यह मेसेज आने की घंटी थी |
मैं मेसेज को खोल कर देखने लगा , शायद कोई अच्छी खबर हो |
मैंने पढ़ा ….आप के काका, श्री रघु राम अब इस दुनिया में नहीं रहे | उनका परिवार का कोई सदस्य नहीं होने के कारण सरकारी व्यवस्था से उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया है | आपको नियमतः सूचित किया जाता है |
मैं मेसेज पढ़ कर भोकार पार कर जोर जोर से रोने लगा | मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था | एक ही सहारा बचे थे, रघु काका | उसे भी भगवान् ने इस दुनिया से उठा लिया |
मैं जोर जोर से रोता रहा, आँसू बहाता रहा | लेकिन ऐसे समय में भी कोई लोग- बाग़ कोरोना के डर से मेरे पास नहीं आये |
मेरा बदन कमजोरी से थर थर काँप रहा था | मैं रात में भी कुछ नहीं खाया था | मैं अपने आप को सँभालने की कोशिश करने लगा |
मुझे पता था अब यहाँ मेरी मदद करने वाला कोई नहीं है | मैं मिटटी के घड़े से पानी निकाल कर पिया और चारपाई पर वही बैठ गया |

मेरे दिमाग में तरह तरह के विचार आने लगे | हमें लगा ऐसी भी ज़िन्दगी इंसान को नसीब होती है | जो रघु काका, अपने बेटे को ज़िन्दगी का बहुमूल्य समय दिया | उसे पढ़ा लिखा कर इंसान बनाया , और आज उस बेटे के रहते हुए भी उनका क्रिया कर्म भी नहीं हो सका |
अगर मुझे यह बिमारी हो गई तो मुझे भी हॉस्पिटल ले जाने वाला कोई नहीं है, मैं तो यहीं बैठा- बैठा ही दम तोड़ दूंगा |
इससे अच्छा है कि मैं भी सोहन काका की तरह यहाँ से पलायन कर जाऊं | आज बहुत दिनों के बाद अपना घर, अपनी माँ और पत्नी सावित्री की याद आने लगी |
पता नहीं वे लोग गाँव में किस तरह होंगे | पहले तो सावित्री का पत्र आने से समाचार मिल जाता था लेकिन पिछले छह माह से चिट्ठी नहीं आ सकी है, ….डाक घर भी तो बंद है |
तभी याद आया …अभी लंगर में खाना मिलने का समय हो गया है |..मैं किसी तरह हिम्मत करके उठा… मुँह पर मास्क लगाया और मुँह को गमछे से छुपा कर चल दिया |
खाना खा कर शरीर में कुछ ताकत महसूस हुई | मैं अपनी मन को शांत करने की कोशिश करने लगा , ताकि आगे के बारे में कुछ सोच सकूँ |
तभी लंगर चलाने वालों को कहते सुना कि कल से लंगर बंद हो रहा है | इसका मतलब अब भूखो मरने का समय आ चूका है |
रात के करीब दस बज रहे थे और मैं बिस्तर पर पड़ा सोने की कोशिश कर रहा था | लेकिन नींद तो मानो कोसों दूर थी |
बस आँखे बंद किये लेटा हुआ था तभी मुझे ऐसा महसूस हुआ… जैसे रघु काका पास में अपने बिस्तर पर सो रहे है और बोल रहे है कि तुमलोगों ने मेरा अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया ?
मैं अचानक बिस्तर में उठ बैठा, कमरे में पूरा अँधेरा था और मैं पसीने से तर ब तर हो गया | मुझे इधर उधर कुछ भी अँधेरे में दिखाई नहीं पड़ रहा था, और मुझे डर भी लग रहा था |
मैं जोर जोर से हनुमान चालीसा पढने लगा और बहुत हिम्मत जुटा कर पास में पड़े माचिस से लालटेन को जलाया | कमरे में रौशनी फ़ैल गयी |
मैं पास में रखे रघु काका के बिस्तर की ओर देखा , वो उसी तरह लपेट कर रखे हुए थे |
डर तो अभी भी लग रहा था | मैं घड़े से पानी निकाल कर पिया और वापस बिस्तर पर बैठ गया |
इतनी रात को तो बाहर भी नहीं निकल सकता था, बस बैठे बैठे सुबह होने का इंतज़ार करता रहा |

कभी बीच में झपकी भी आ जाती थी तो रघु काका सामने आ जाते और डर कर मेरी आँखे फिर खुल जाती थी | एक एक पल जैसे एक युग समान बीत रहे थे | बहुत कष्ट पूर्ण रात थी | किसी तरह गुज़र गई |
मैं सुबह में उठते ही सबसे पहले रघु काका की रिक्शा की खोज खबर ली | रिक्शा सही सलामत थी और सवारी के लिए तैयार भी |
मैं मुँह हाथ धो कर कपडे पहने और अपनी बाकि के सामान बाँध कर रिक्शे में डाल लिया …. और मन में पक्का इरादा किया कि अब तो मैं भी अपने गाँव रिक्शे से ही निकल जाऊँगा ताकि और दूसरी ऐसी भयावह रात देखने को ना मिले |
घर में रखे सभी काम की चीज़ों को समेटने लगा, उसमे कुछ चावल और आटा भी थे और एक स्टोव भी रिक्शे में डाल लिया जैसे खाना बदोस लोग सफ़र करते है |
मैं भगवान् का नाम लिया और रिक्शे में बैठ कर अपने साहसिक यात्रा की शुरुवात कर दी |…
(क्रमशः )

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