#बचपन का ज़माना था#

बचपन का भी क्या ज़माना था | बचपन के अनुभव हमें आज भी याद आते है और दिल बरबस ही सोचता है कि क्यों हम बड़े हो गए ?

लेकिन ज़िन्दगी तो है एक समय की धारा | हम सब को इसमें बहते जाना है | लेकिन कभी कभी मुड़ कर हम बचपन में बिताये कुछ हसीन लम्हों को याद कर, इस तनाव भरी ज़िन्दगी में  खुश हो लेते है | आइये फिर आज  बचपन के उन हसीन लम्हों को याद करते है …

तब हमारी उम्र करीब 9-10 साल की रही होगी | स्कूल में हमारी दोस्तों की एक चौकड़ी बन गयी थी, जिसे लोग चंडाल – चौकड़ी भी कहते थे | क्योंकि, हमेशा कोई न कोई खुराफात दिमाग में चलता रहता था, इसलिए बदमाशी के कारण स्कूल के टीचर से लेकर घर वाले सभी लोग परेशान रहते थे |

हम दोस्तों में एकता इतनी कि अगर कोई क्लास से भाग कर फिल्म देखने चला जाता तो उसकी सहायता हम यूँ करते थे कि जब क्लास में उपस्थिति रजिस्टर में नाम पुकारा जाता तो उसके बदले हम मुँह से अलग तरह की आवाज़ निकाल कर कहते — उपस्थित सर  और उसकी हाजरी लग जाती |

इस बार फिल्म देखने की मेरी बारी थी | उन  दिनों देवानंद की फिल्म “गाइड” लगी हुई थी | मैं देवानंद का फैन था | इसलिए मुझे वह फिल्म देखनी थी, पर कैसे ?

सभी दोस्तों ने सलाह दिया कि मोर्निंग शो देख सकते हो, क्लास में तुम्हारी हाजरी (proxy) हम लगवा देंगे और घर वालों को पता नहीं चलेगा |

आईडिया सही थी | मैं अगले दिन किताब कॉपी लेकर क्लास में पहुँचा | मास्टर साहब के आने से पहले हमने  अपने किताब को दोस्त के हवाले कर सिनेमा हॉल में पहुँच गया |

इधर क्लास लगी  और मास्टर साहब ने उपस्थिति लेना (Attendence) शुरू किया | संयोग से मेरे नाम पुकारने पर एक नहीं दो दो दोस्तों ने एक साथ बोला – उपस्थित सर |

मास्टर जी सुनते ही उस ओर देखा जिधर से आवाज़ आयी थी |

उन्होंने पूछा – किसने उपस्थित बोला | लेकिन डर से किसी ने ज़बाब नहीं दिया |

उन्होंने मेरी खोज की तो मुझे क्लास में उपस्थित नहीं पाया | मैं रजिस्टर में अनुपस्थित हो गया |

मास्टर साहब हमारे चंडाल चौकड़ी को अच्छी तरह पहचानते थे |

मैं फिल्म देख कर करीब दो बजे स्कूल वापस आ गया | अब एक क्लास और बचा था, और फिर छुट्टी |

लेकिन संयोग से वही टीचर फिर क्लास लेने आ गए | फिर attendance हुआ और मैं पकड़ा गया |

उन्होंने मुझे पास बुलाया और सुबह के क्लास से गायब होने का कारण पूछा | उनके हाथ में एक मजबूत छड़ी को देख कर मैंने  सच सच बता दिया |

 उन दिनों बच्चो को फिल्म देखने की सख्त मनाही थी |

फिर क्या था — उनकी छड़ी और मेरा कोमल बदन | सभी दोस्तों के सामने अच्छी से मेरी धुनाई हो गयी |

एक तो “गाइड” फिल्म कुछ समझ में नहीं आया और दुसरे,  मैं क्लास में पकड़ा कैसे गया ?  यह भी समझ में नहीं आया |

और आगे क्या बताऊँ दोस्तों,  यह शिकायत मेरे घर पर भी चली गयी और फिर घर में भी मेरी अच्छी  कुटाई हुई |   मुझे तो बस यही लगा कि उस दिन तो मेरा जतरा ही खराब था |

एक बचपन का जमाना था,
जिस में खुशियों का खजाना था..

चाहत चाँद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था..

खबर ना थी कुछ सुबह की,
ना शाम का ठिकाना था..

थक कर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था…

माँ की कहानी थी,
परीयों का फसाना था..

बारीश में कागज की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था..

हर खेल में साथी थे,
हर रिश्ता निभाना था..

गम की जुबान ना होती थी,
ना जख्मों का पैमाना था..

रोने की वजह ना थी,
ना हँसने का बहाना था..

क्युँ हो गऐे हम इतने बडे,
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था..

(विजय वर्मा)

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Categories: मेरे संस्मरण

13 replies

  1. वाह! शानदार कविता! उनके विचार रंगीन होते हैं, जिनके बचपन हसीन होते हैं!

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  2. This is a beautiful post. Nice photo and drawing

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  3. This is a beautiful post. Nice photo and drawing..

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  4. मार खाकर भी खुश हो जाना
    क्या था वह बचपन का जमाना

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  5. Kahani to yaad dilata hai.Kavita bhi Bahut Badhia.

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  6. Reblogged this on Retiredकलम and commented:

    Life laughs at you when you are unhappy,
    Life smiles at you when you are happy. But
    Life salutes you when you make others happy.

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