
गज सिंघपुर, उत्तर प्रदेश का बहुत ही पिछड़ा गाँव है, मात्र 250 घरों की आबादी है |
पथरीला बंजर भूमि होने के कारण नाम मात्र की ही खेती होती है | इस गाँव के सबसे संपन्न किसान ठाकुर जुगत सिंह थे,|
भले ही अब जमींदारी न रही हो, लेकिन अभी भी उनका रसुख इस गाँव में बरकरार है, इसलिए गाँव के लोग उन्हें काफी इज्जत करते है |
गाँव के ज्यादातर गरीब लोग उनके खेतों में काम कर अपनी जीविका चलाते है |
सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था कि अचानक देश में कोरोना का भूचाल आ गया और इस गाँव के ठाकुर साहब का घर भी इससे अछूता नहीं रह सका |
दरअसल इस गाँव में भी कोरोना का आतंक अपने पैर पसारने लगा था | पिछड़ा गाँव होने के कारण यहाँ न तो डॉक्टर थे और न ही कोई सरकारी हॉस्पिटल था |

ऐसे में ठाकुर साहब ने काफी सोच विचार कर यह निर्णय लिया कि इस गाँव के मकान को छोड़ कर पास वाले कसबे में जो दूसरा मकान है उसमे शिफ्ट करेंगे ताकि ज़रुरत पड़ने पर वहाँ उपलब्ध सरकारी अस्पताल की सेवा प्राप्त की जा सके |
ठाकुर साहब, उनकी पत्नी और एक छः साल का बेटा भोलू ही इस घर में था | ठाकुर साहब तय कार्यक्रम के अनुसार आज रविवार को प्रात:काल ही सब लोग मकान को छोड़ कर चलने की तैयारी करने लगे ।
जल्दी में ठकुराईन ने ठंडे पानी से ही नहा लिया।
ठंड के मौसम में ठंडे पानी से नहाना था कि उनकी छीकें आनी शुरू हो गई और थोड़ी ही देर में सारा शरीर बुखार से तपने लगा |
अतः मज़बूरी में ठाकुर साहब को दुसरे घर में जाने का कार्यक्रम स्थगित कर देना पड़ा | यहाँ गाँव में कोई डॉक्टर तो था नहीं, ऐसे में गाँव के एक हकीम साहब को बुलाया गया |
हाकिम साहब आये और देखने के बाद उन्होंने बुखार उतारने के लिए देशी दवा दिया, साथ ही काढ़ा पीने और गरम पानी से गरारे करने की सलाह भी दी |
सायंकाल होते होते बुखार उतरने की जगह और भी बढ़ गया और सांस लेने में भी समस्या होने लगी |
यह सब देख कर ठाकुर साहब और उनके नौकरों चाकर सब घबरा गए । रात किसी तरह गुज़र गयी |
सुबह उठ कर ठाकुर साहब ने यह निर्णय लिया कि पास के कसबे से डॉ साहब को बुलाया जाए |..
इसके लिए उन्होंने अपने एक सेवक को गाड़ी के साथ वहाँ भेजा और डॉक्टर के आने का इंतज़ार करने लगे |
करीब एक घंटे बाद डॉ साहब आये |
मरीज़ की स्थिति काफी बिगड़ गयी थी और वह बेहोशी की अवस्था में थी |
चूँकि डॉ साहब कसबे में कोरोना का तांडव देख चुके थे अतः वह भी डरते – डरते मरीज़ के पास पहुंचे, लेकिन उन्होंने मरीज से दुरी बनाये रखा. |.
मुँह पर मास्क और हाथ मे दास्ताना होते हुए भी उन्होंने मरीज को छुआ तक नहीं ? बस दूर से ही मरीज़ का मुआयना करने लगे |
चूँकि मरीज़ की साँसे नहीं चल रही थी और शरीर में कोई हलचल भी नहीं थी |..
अतः उन्हें लगा कि मरीज़ के प्राण पखेरू उड़ चुके है |
इसलिए उन्होंने ज़ल्दिबाज़ी में घोषणा कर दी कि ठकुराईन अब इस दुनिया में नहीं रही |
डॉक्टर साहब ने ठाकुर साहब को सलाह दी कि आप लोग भी ज़ल्दी से इस घर से दूर हो जाएँ क्योंकि कोरोना एक संक्रामक बीमारी है |..
यह कहकर डॉ साहब चले गए ।

अब ठाकुर साहब बड़े असमंजस में पड़ गए । न तो उनसे यहाँ रहते ही बन रहा था और न ठकुराईन को छोड़ कर जाते ही बन रहा था ।
वह मन में सोचने लगे, कि यदि यहां मेरे ठहरने से किसी को कुछ लाभ होता हो तो मैं अपनी जान भी खतरे में डालूं ।
परंतु इस कोरोना के बीमारी का कोई इलाज़ ही नहीं है और ना ही दवा कुछ काम करता है | ऐसे में ठकुराईन के लाश के पास बैठ कर अपना और अपने बेटे का प्राण संकट में क्यों डालें ? …
यही एक बेटा तो हमारा वंश का वारिस है और हमें हर हाल में इसे बचाना है |
यह सोच जब वह चलने के लिए खड़े हुए तभी वह बालक भोलू अपनी माँ के मुंह की ओर देखकर रोने लगा…और वहां से जाने से इंकार कर दिया.|
ठाकुर साहब भी विवश होकर मृत शरीर से कुछ दुरी बनाकर बैठ गए |
इधर ठकुराइन की मृत्यु का खबर सुन कर गाँव के लोग इकट्ठे होने लगे | घर के नौकर चाकर सभी रोने लगे ।

गाँव वाले के मुख से यही बात सुनाई पड़ रही थी,‘ — .. अरे क्या निर्दयी “काल” ने इस बेचारी अबला का प्राण ले ही डाला | सचमुच क्रूर काल को किसी के भी सद्गुणों पर विचार नहीं होता, ’तभी तो सभी के ह्रदय में राज करने वाली ठकुराइन आज काल का ग्रास बन गयी |
उस रोते हुए बच्चे को देख कर तो गाँव वाले कहने लगे … इस छोटी और मासूम बच्चे की ऐसी दिन – दशा पर भी उस निष्ठुर काल को दया नहीं आई |
अब इस अवस्था में यह बच्चा कैसे बेचारा अपनी माँ के वियोग का दुःख सह सकेगा !
हाय, इस अभागे पर बचपन ही में ऐसी विपत्ति आन पड़ी !’
ठाकुर साहब भी जब ठकुराईन के मरने की खबर सुने थे तो होकर मूर्छित होकर गिर गए थे | वह तो भला हो उनके नौकरों का जिसने उन्हें संभाला और ज़ल्दी – ज़ल्दी उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे, तब जाकर ठाकुर साहब को होश आया था |
उनके पड़ोसियों ने जो वहां एकत्र हो गए थे, यह सलाह दे रहे थे कि स्त्री के मृत शरीर को जितनी ज़ल्द हो सके गंगा तट पर ले चलकर दाह-क्रिया कर देनी चाहिए।
डॉक्टर ने भी जाते जाते कहा था कि कोरोना एक छुआछूत वाली बिमारी है इसलिए ज़ल्द ही लाश को यहाँ से निकालिए और अपनी जान बचाइए |.
ठाकुर साहब को भी यह राय पसंद आई थी क्योंकि उन्होंने तो रात ही इस गाँव से जाने का इरादा कर रखा था |
वह तो केवल उस बच्चे के अनुरोध से रुके हुए थे। लेकिन माँ के बिना उस लडक़े को भी इस समय यहाँ से ले चलना कठिन था | क्योंकि वह अपनी मृत माँ, के निकट से जाना ही नहीं चाहता था।
अंत में ठाकुर साहब ने दिल कड़ा कर उस बालक को गोद में उठा लिया और उसे ज़बरदस्ती गाड़ी में बिठा कर दूसरे मकान में चलने की तैयारी करने लगे |.
अलबत्ता चलती बार ठाकुर साहब ने मृत ठकुराइन के मुखड़े को विवशता भरी आँखों से देखा और मन ही मन कहा … हमारा – तुम्हारा साथ बस यही तक का था | भगवान् तुम्हारी आत्मा को शांति प्रदान करे |

ठाकुर साहब की आज्ञा से उनका एक पुराना नौकर उस मकान की रक्षा के लिए वहीं रह गया। पड़ोसी लोग भी इस घटना से दुखी होकर अपने घरों को लौटने लगे |
परंतु उनके पड़ोसी के मन में यह बात नागवार गुजरी और सोचने लगे कि ऐसी दशा में पड़ोसी का धर्म क्या है ?
हमारे देश का रिवाज है कि जब तक मुहल्ले में कोई मुर्दा पड़ा रहता है तब तक कोई गाँव वाला नहाता-खाता नहीं है ।
जब उसकी दाह-क्रिया सब ठीक तरीके से हो जाता है और लोग घाट से आ जाते है, तब पड़ोसी लोग अपने-अपने दैनिक कार्यों में लगते है और तब घर का चूल्हा जलता है |.. (क्रमशः )
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आपको अकेले लड़नी पड़ती है ज़िन्दगी की लड़ाई ,
लोग सिर्फ तसल्ली देते है साथ नहीं |
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