
आज मैं एक ऐसे कहानी के बारे में बताने जा रहा हूँ जिसमे प्रेम के प्रतिफल के रूप में भरत का जन्म हुआ था, जो कालांतर में देश के महान शासक बने | उन्ही के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा |
कहानी कुछ इस तरह है कि एक बार महर्षि विश्वामित्र तपस्या में लीन थे | बहुत दिनों तक जब उनकी तपस्या नहीं टूटी तो स्वर्गलोक के राजा इन्द्र को अपनी सिंघासन के खो जाने भय सताने लगा |
क्योंकि कोई भी तपस्वी अपने तपस्या के बूते पर स्वर्गलोक की गद्दी प्राप्त कर सकता था |
ऐसा मन में भाव आते ही भगवान् इन्द्र ने विश्वामित्र जी की तपस्या भंग करने के लिए बहुत बार प्रयास किया परन्तु वे सफल नहीं हो सके |
अंत में उन्होंने स्वर्ग की अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए पृथ्वी लोक पर भेजा, जहाँ उसे अपनी सुन्दरता के बल पर उनकी तपस्या को भंग करना था |
बहुत प्रयास के बाद बिश्वमित्र जी की तपस्या अंततः भंग हो गई | वे मेनका के सुन्दर रूप जाल में फंसकर अपनी तपस्या छोड़ दी और मेनका के साथ गृहस्थ जीवन बिताने लगे |
कुछ समय के पश्चात मेनका ने एक पुत्री को जनम दिया |
चूँकि मेनका का काम पूरा हो चूका था अतः भगवान् इन्द्र ने उसे इन्द्रलोक वापस बुला लिया |
इन्द्र की आज्ञा पा कर मेनका मुनि विश्वामित्र और अपनी बेटी को उनके आश्रम में छोड़ कर वापस इन्द्र लोक लौट गयी |
जब विश्वामित्र मुनि को देवराज इन्द्र द्वारा किये गए छल के बारे में पता चला तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ | वे दुखी मन से उस अबोध बच्ची को जंगल में ही कण्व ऋषि के आश्रम के दरवाजे पर छोड़ कर खुद तप करने के लिए घोर जंगल में चले गए |
चूँकि कण्व ऋषि उस समय अपने आश्रम में मौजूद नहीं थे अतः ऋषि के आने तक शकुन्त नामक पक्षी ने उस बालिका की रक्षा की | इसलिए उसका नाम शकुंतला पड़ा |
जब कण्व ऋषि वापस अपनी कुटिया में आये तो उस मासूम बच्ची को देखा | उस बच्ची पर उन्हें दया आयी और उसे अन्दर आश्रम में ही रख कर उसका लालन – पालन करने लगे | शकुंतला उसी आश्राम में पल कर बड़ी हुई |
एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये । जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुंच गये ।

बाहर से पुकार लगाने पर एक सुंदर कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, ..“हे राजन ! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है ।”
उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा …. “बालिके ! आप कौन हैं ?”
कन्या ने कहा… “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।”
उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, ..“महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हुई ?”
उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, …“वास्तव में, मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं।
लेकिन मेरा लालन पोषण कण्व ऋषि ने किया है अतः मेरे लिए वही पिता है |
शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा,… “शकुन्तले ! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।”
शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
दोनों ने उसी समय गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ दिनों तक महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया।
लेकिन एक दिन वे शकुन्तला से बोले,.. “प्रियतमे ! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा।
महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहां से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण अंगूठी दी और हस्तिनापुर चले गये ।

एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे । महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान ही नहीं हुआ और वह दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत -सत्कार नहीं कर सकी |
दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले … “बालिके ! मैं तुझे श्राप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।”
दुर्वासा ऋषि के श्राप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी।
शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा,… बालिके ! मैं अपना श्राप तो वापस नहीं ले सकता | लेकिन यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति आ जाएगी |
महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी । कुछ काल पश्चात कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया ।
और यह भी कहा कि वो उनके बच्चे की माँ बनने वाली है |
इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री ! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया।
हस्तिनापुर जाते हुए मार्ग में एक सरोवर मिला | उस सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई । संयोग से उस अँगूठी को एक मछली निगल गई, और वहाँ से भाग गई |

महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा … “महाराज ! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें ।”
लेकिन महाराज दुष्यंत तो दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण शकुन्तला को भूल चुके थे । अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार करने से मना कर दिया और उस पर झूठा आरोप भी लगाया |
यह सब सुन कर शकुंतला को अत्यंत पीड़ा हुई | अंत में दुखी मन से वो उनके दरबार से वापस जंगल में लौट गई |
लेकिन जंगल में पहुँच कर शकुंतला ने कण्व ऋषि के शिष्यों से कहा … अब मैं उस आश्रम में वापस नहीं जाऊँगी, क्योकि पिता के घर से निकलने के बाद पति का घर ही उसका घर होता है |
अतः मेरे लिए वहाँ जाना उचित नहीं है | शकुंतला उनलोगों का साथ छोड़ कर जंगल के दूसरी ओर चली गयी |
लेकिन थोड़ी दूर चलने के बाद उसको अपने माता – पिता की बहुत याद आने लगी | वह वही जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठ कर विलाप करने लगी |
उसी समय वहाँ से गुज़रते हुए कश्यप ऋषि की नज़र शकुन्तला पर पड़ी | उससे सारी बातें जान कर वे गर्भवती कन्या के दुःख से द्रवित हो गए और उसे अपने आश्रम में ले आये | जहाँ कुछ दिनों के बाद उसने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया |

उधर जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट से कीमती अँगूठी निकली ।
मछुआरे ने समझा कि निश्चय ही यह राजा की अंगूठी होगी | इसलिए उस अंगूठी को वापस करने हेतु वह राजा के दरबार में पहुँचा |
वहाँ मुख्य द्वार पर खड़े द्वारपाल ने उसे अन्दर जाने से रोक दिया |
इस पर मछुआरे ने कहा … मुझे राजा को यह सोने की अंगूठी देनी है, जो मुझे एक मछली के पेट में मिली थी |
द्वारपाल उसकी बात सुन कर कहा .. तुम्हे तो राजा जी से इस नेक काम के लिए ईनाम मिलेगा, लेकिन इसमें मेरा क्या फायदा होगा ?
कुछ सोच कर फिर द्वारपाल ने कहा .. .एक शर्त पर तुम्हे राजा के पास ले जा सकता हूँ |
मछुआरे ने पूछा .. .क्या शर्त है तुम्हारी ?
द्वारपाल ने कहा … तुम्हे जो भी ईनाम राजा के तरफ से मिलेगा, उसका आधा तुन्हें मुझे देना होगा |
मछुआरे ने उसके लालची मन को भाप कर ईनाम को आधा देने का वचन दे दिया |
द्वारपाल शर्त की बात मान लेने से खुश हो गया और मछुआरे को तुरंत राजा के सामने हाज़िर कर दिया |
महाराज ने जब उसके आने का कारण पूछा तो मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत को देकर कहा… हुजुर, यह अंगूठी मुझे एक मछली के पेट से मिली थी |
अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया | और वे बहुत प्रसन्न हो गए |
उन्होंने मछुवारे से कहा.. इस अंगूठी को लाकर तुमने मुझपर बहुत उपकार किया है |
मैं तुन्हें इसके लिए मुँह माँगा ईनाम देना चाहता हूँ | तुम कुछ भी मांग सकते हो |
द्वारपाल बहुत लालची था वह सब बाते सुन रहा था और मन ही मन खुश हो रहा था कि ईनाम का आधा उसे प्राप्त होगा |
मछुवारा कुछ देर सोचा फिर धीरे से राजा से कहा … .हुज़ूर, मुझे सौ कोड़े मारने का हुक्म दीजिये |
उसकी बातें सुन कर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ |
उन्हेंने पूछा … तुम ऐसा ईनाम क्यों पाना चाहते हो ?
मछुआरा हाथ जोड़ कर बोला… हुजुर आज आपसे मिलाने के लिए आपके द्वारपाल इसी शर्त पर राज़ी हुआ था कि जो भी ईनाम मुझे मिलेगा उसका आधा उसे दे देना पडेगा |
अतः सौ कोड़े मारने का ईनाम मुझे मिलता है तो उसका आधा यानी पचास कोड़ा द्वारपाल को मिलेगा |
राजा को अपने द्वारपाल के गलती का एहसास हुआ | उन्होंने उस द्वारपाल को सजा तो दी ही, साथ ही मछुआरे को उचित पुरस्कार देकर विदा किया |
अब वे शकुंतला को ढूंढने का प्रयास करने लगे, लेकिन कहीं भी उसका पता नहीं चला | तब निराश होकर अपनी गलती पर वे पश्चाताप करने लगे |
कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र का निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये।
संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। वे उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये ।

आश्रम के बाहर एक मासूम बालक एक भयंकर शेर के साथ खेल रहा था । उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी।
वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, …“हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुएं अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा ।”
यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया ।
शकुंतला की सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला डोरा पृथ्वी पर गिर गया है।
सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा।
सखी को बालक के पिता का भान होने पर प्रसन्नता हुई और उसने खुश हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया ।
शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई । महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया । उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
कालांतर में शेर के साथ खेलने वाला उसी बच्चे का नाम भरत रखा गया और उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत रखा गया |
(Pic source: Google.com)
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This story is a beloved one . Amazing narration , 😊😊
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Thank you very much..
This is a historical Love story
Stay connected …stay happy..
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👌
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Thank you dear..
Stay Blessed..
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Story is beautiful. Presentation is also very beautiful. I enjoyed and it revived my memory .
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Yes dear.
This is a beautiful love story.
Thanks for sharing your views..
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An interesting story 👌
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Thank you dear..
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बहुत खूब
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जी , बहुत बहुत धन्यवाद |
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You have narrated the story of Shakuntala very nicely which is one of the greatest epic story and also conveys moral lessons to the readers
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yes sir,
this is all time greatest epic story and
with moral lessons..
Thanks for your kind words..
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Very known love story of Shakuntala and Dushyant. Well narrated.😊
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Thank you very much..
You too are a good story teller .
I love your Blogs..
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🤗🤗🍫❤️👏🌺💐
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keep writing..
All the Best..
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Good👌👌🌍
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Thank you dear ..
Stay connected ….Stay happy..
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Surrounds yourself with people who know your worth,
You don’t need too many people to be happy..
just a few real ones who appreciate you for exactly who you are…
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बहुत खूब 🌹🌹🌹
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जी, बहुत बहुत धन्यवाद |
यह कहानी मुझे भी बहुत पसंद है |
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Ha ji
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मुझे खुशी है कि आपको मेरा ब्लॉग पसंद आ रहा है ।
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बहुत ही accha लगता हैं
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हौसलाअफजाई के लिए धन्यवाद डिअर ।
आप का भी ब्लॉग मुझे अच्छा लगता है, इसलिए सभी को समय निकाल कर पढ़ता हूँ।
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जी, बहुत बहुत धन्यवाद।
यह कहानी मुझे बहुत पसंद है ।
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