कैसे बने बर्बरिक खाटू श्याम जी
दोस्तों,
इन दिनों कोरोना महामारी के कारण हम सभी घरों में कैद है | आज कल चल रहे मनोरंजन के लिए एक मात्र साधन आईपीएल मैच को भी स्थगित कर दिया गया है |
ऐसे में बच्चो और बुजुर्गों के लिए हमने ने महाभारत के कुछ प्रसंगों को यहाँ प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है ताकि सभी लोगों का मनोरंजन के साथ साथ शिक्षा भी मिल सके |
आज इस कड़ी में वीर योद्धा बर्बरीक के बारे में चर्चा करेंगे |
बर्बरीक महाभारत के एक महान योद्धा थे । वे घटोत्कच और अहिलावती (nagkanya mata) के पुत्र थे। बर्बरीक को उनकी माँ ने यही सिखाया था कि हमेशा हारने वाले की तरफ से लड़ना चाहिए | वे इसी सिद्धांत पर चलते हुए और अपने माँ को दिए हुए वचन का पालन हमेशा करते रहे |
बर्बरीक बचपन से ही बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध-कला अपनी माँ से सीखी।
उन्होंने माँ आदिशक्ति की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और उनसे तीन अभेद्य बाण प्राप्त किये | इसलिए उन्हें ‘तीन बाणधारी‘ के नाम से भी जाना जाता है |
ईशापुर्तिक वाल्मीकि ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।
बर्बरीक के लिए यह तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य होना तय हो गया था | अतः यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुआ तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई।
जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नील घोड़े, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए।
महाभारत का युद्ध आरम्भ होने वाला था तभी भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु में स्थित एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। बर्बरीक की इस घोषणा से कृष्ण चिंतित हो गए ।
उन्हें पता था कि बर्बरीक अपनी शक्ति से दोनों ओर के सारी योद्धाओं को अकेले समाप्त कर सकता था |
सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिए उनके समक्ष प्रस्तुत हुए | यह देख कर उनकी हँसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है।
ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकस में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा ।
इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें चुनौती दी कि इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेदकर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खड़े थे । बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तरकश से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया।
जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा। कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया कि यह छेद होने से बच जाएगा, |
लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर घुमने लगा | तब बर्बरीक ने कहा … हे प्रभु, आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए, क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को छेदने की नहीं ।
उसके इस चमत्कार को देखकर कृष्ण चिंतित हो गए। भगवान श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि बर्बरीक प्रतिज्ञावश हारने वाले का साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो फिर पांडवों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यदि जब पांडव बर्बरीक के सामने हारते नजर आए तो फिर वह पांडवों का साथ देगा । इस तरह वह दोनों ओर की सेना को एक ही तीर से खत्म कर सकता है ।
ब्राह्मण वेश में अपस्थित श्रीकृष्ण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, | इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा।
श्रीकृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी।
उन्हें पता था कि भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण के वेश में है | बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से आने की प्रार्थना की और उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की | तब श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीर क्षत्रिए के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतएव उनका शीश दान में मांगा था ।
बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है | श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली । फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया।
उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
इस तरह श्रीकृष्ण ने अपनी कूटनीति से इस महान वीर की बलि चढ़ा दिया ।
महाभारत युद्ध की समाप्ति तक युद्ध देखने की इनकी कामना श्रीकृष्ण के वरदान से पूर्ण हुई और इनका कटा सिर अंत तक युद्ध देखता और वीरगर्जन करता रहा।
कुछ कहानियों के अनुसार बर्बरीक एक यक्ष थे, जिनका पुनर्जन्म एक इंसान के रूप में हुआ था। बर्बरीक गदाधारी भीमसेन का पोता और घटोत्कच के पुत्र थे।
युद्ध की समाप्ति के बाद, पांडवों में ही आपसी बहस होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है | इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, इसलिए उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है ?
सभी इस बात से सहमत हो गये । जब उनसे पूछा गया तो बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है।
उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ मुझे दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था ।
पांडव रिश्ते में बर्बरीक के पितामह थे , इसलिए बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु ही स्वेच्छा के साथ शीशदान कर दिया गया।
बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर, दान के पश्चात श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया।
इसलिए आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है। जहां कृष्ण ने उसका शीश रखा था उस स्थान का नाम खाटू है ।
वैसे तो महाभारत में अनगिनित योद्धाओं ने युद्ध लड़ा और अधिकतर ने मृत्यु को प्राप्त किया | जो जिंदा बचे उन्हें आभास था कि उनकी विजय इसलिए हुई कि वे सत्य और न्याय के साथ खड़े थे और भगवान् श्री कृष्णा का वरद हस्त उनके ऊपर था |
अतः सच ही कहा गया है कि अंत में जीत सत्य की होती है ..और अगर हम सब सत्य मार्ग पर है तो ईश्वर भी हमारी मदद करते है….
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Barbarik is worshipped as Khatushyamji in Rajathan and is the community God of the marwari. Barbarik was sacrificed to save his forefathers, the Pandavas. Although it is also said that there is no mention of Barbarik in Vyasa’s Mahabharata but a later addition from Skand Puran.
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yes Sir,
Barbarik is worship by Marwari community as Khatushyamji ..
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Yes sir, Barbarik was worshiped as khatu shyamji..
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कोई न मिले तो .. किस्मत से गिला नहीं करते ,
अक्सर लोग मिल कर भी …मिला नहीं करते …
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