
दोस्तों ,
वैसे तो हमारे बिहार की धरती पर बहुर सारे वीर योद्धाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपनी वीरता का इतिहास रचा है |
आज हम एक ऐसे व्यक्तित्व के बारे में चर्चा करने जा रहे है, जो १८५७ के प्रथम स्वंतंत्रता संग्राम के नायक रहे है और जिन्होंने अपनी वीरता और बलिदान से ना सिर्फ बिहार की धरती को बल्कि समूचे भारतवर्ष को गौरवान्वित किया है |
आज भी उनके वीरता के किस्से सुन कर हम सब देश वाशियों के शरीर और मन में वीरता और बलिदान की भावना जागृत हो उठती है |
जी हाँ, वे है हमारे बिहार के बाबू वीर कुंवर सिंह | आज उनकी पुण्य तिथि है और इस अवसर पर याद कर उन्हें विनम्र श्रद्धांजली अर्पित करते है |
वीर कुंवर सिंह का इनका जन्म 13 नवंबर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गाँव में हुआ था |
सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही और महानायक के रूप में वीर कुंवर सिंह याद किये जाते है ।
इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे । उनके माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था | उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा अंग्रेजों से लड़ते रहे।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे |
अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया |
वह प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का दौर था जब इस संग्राम के प्रथम नायक बने मंगल पाण्डेय ने वर्ष 1857 में विद्रोह का बिगुल बजाया था |
उसी समय जहां एक तरफ झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों और ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ झांसी, कालपी और ग्वालियर में अपना अभियान छेड़ रखा था तो वहीं दूसरी तरफ गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के अग्रणी योद्धा तात्या टोपे और नाना साहेब ग्वालियर, इंदौर, महू, नीमच, मंदसौर, जबलपुर, सागर, दमोह, भोपाल, सीहोर और विंध्य के क्षेत्रों में घूम-घूमकर विद्रोह का अलख जगाने में लगे हुए थे |
उसी समय एक और रणबांकुरा था जिसकी वीर गाथा आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का काम करती है, वो रण बंकुरा वीर कुंवर सिंह थे |
सन 1857 की क्रांति में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया ।
बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी।
मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी । ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने अपने सेनापति मैकु सिंह एवं भारतीय सैनिकों का कुशलता पूर्वक नेतृत्व किया ।
जब दानापुर की सैनिक टुकड़ी ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर दिया और वे लोग आरा की तरफ चल पड़े | उसके बाद उनलोगों ने वीर कुंवर सिंह से संपर्क किया | उस समय वीर कुंवर सिंह की उम्र ८० वर्ष की थी लेकिन उनके अन्दर जोश की कोई कमी नहीं थी |

उस समय उन्होंने ने उन लोगों के साथ मिल कर एक मुक्ति वाहिनी सैनिक बनाई और उसका नेतृत्व सफलता पूर्वक किया |
उन्होंने 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिल कर अंग्रेजो से युद्ध किया और आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया ।
अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा । जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो उनके साथ बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई । बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए ।
वीर कुंवर सिंह को छापामार युद्ध कला में महारत हासिल थी | उन्होंने युद्ध के दौरान अपनी तलवार की जिस धार से अंग्रेजी सेना को मौत के घाट उतार दिया था , उसकी चमक आज भी भारतीय इतिहास के पन्नो में अंकित है |
उनके रण कौशल की बात की जाए तो अंग्रेजी सेना उसे समझने में बिलकुल विफल रहे थे | अंग्रेजी दुश्मनों को या तो वहाँ से भागना पड़ता या फिर युद्ध में कट कर मर जाना पड़ता था |
अंग्रेजों द्वारा आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद जगदीशपुर पर भी आक्रमण कर दिया । ऐसी हालत में बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी ।
अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे ।

ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है,…. ‘उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी । यह गनीमत थी कि युद्ध के समय बाबू कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी । अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता ।
एक विशेष घटना जो वीर कुंवर सिंह के जीवन में घटित हुई | कहा जाता है कि एक बार कुंवर सिंह अपने सेना के साथ बिहार की ओर वापस लौट रहे थे |
जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा नदी पार कर रहे थे, तभी अंग्रेजी सैनिकों ने उन्हें घेरने का प्रयास किया और गोलियां चला दी | जिसमें से एक गोली बाबू कुंवर सिंह के हाथ पर लगी | जहर शरीर के अन्य भाग में ना फ़ैल सके इसलिए उन्होंने अपनी तलवार से हाथ काटकर गंगा मैया को भेंट चढ़ा दी |
उन्होंने अंग्रेजो को चकमा देकर अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए | और अंततः जगदीशपुर पहुँच गए |
उनकी बहादुरी के ऐसी कितनी ही मिशाले है | वीर कुंवर सिंह ने बहुत सारी लडाईयाँ लड़ी और वो विजयी भी हुए | लेकिन विजयी होने का सौभाग्य ज्यादा दिन तक उन्हें प्राप्त नहीं हुआ |
उनके हाथ के जख्म से खून ज्यादा बह जाने के कारण उनकी हालत बिगड़ती चली गयी और 23 अप्रैल १८५८ को यह वीर योद्धा संसार को अलविदा कह कर अपने पीछे एक इतिहास छोड़ गए |

उनकी बहादुरी को सलाम करते हुए भारत सरकार ने उनके नाम पर स्टैम्प जारी किया था | साल १९९२ में बिहार सरकार ने आरा में उनके नाम पर विश्व विद्यालय की स्थापना की थी |
आज उनकी पुण्य तिथि पर हम उन्हें शत शत नमन करते है …
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Salute to Veer Kunvar Singh. He has shown bravery at age of 80.He is proud son of Bihar soil and made a history.
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Absolutely correct…
His bravery at the age of 80, is the motivation for us..
We solute Babu veer Kunwar Singh……
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Reblogged this on Retiredकलम and commented:
It is very easy to give example, but
it is very difficult to become an example.
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Thank you for sharing the history of this brave man.
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Yes dear,
Thanks for sharing your feelings..
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