
मेरी आलोचना
अपने हौसलों के बल पर हम, अपनी प्रतिभा दिखा देंगे
भले कोई मंच ना दे हमको , हम मंच अपना बना लेंगे
जो कहते खुद को सितारा हैं , जगमगा कर उनके सामने ही
चमक कर देंगे उनकी फीकी और सूरज खुद को बना लेंगें

आज कल अक्सर यह देखा जाता है कि लोग एक दुसरे की आलोचना करते है और यह आलोचना ज्यादातर व्यंग के रूप में होता है |
मेरी भी आलोचना होती है और मुझे भी बहुत बुरा लगता है | कभी कभी तो आलोचना का प्रभाव सम्बन्ध पर ऐसा पड़ता है कि रिश्ते तक ख़तम हो जाते है |
क्या यह सही है ?… इस सन्दर्भ में मुझे एक कहानी याद आ रही है ..
भगवान् ने जब इंसान को बना कर पृथ्वी पर भेजने का फैसला किया तो इंसान ने प्रभु से पूछा… प्रभु, पृथ्वी पर हमारी ज़िन्दगी कैसी होगी ? वहाँ पर मुझे सुखी जीवन जीने के लिए वरदान दें |
इस पर भगवान् ने एक डंडा उस इंसान को दिया और कहा ..हे मनुष्य, मैं यह डंडा तुम्हे दे रहा हूँ जिसके दोनों छोड पर गठरी टंगी हुई है ताकि जब इसे कंधे पर ले कर चलो तो यह डंडा संतुलित रहे |
एक गठरी जो आगे रखना है, उसमे तुम्हारी सारी गलतियाँ, तुम्हारे कमियाँ है जिसे गठरी ढोते समय तुम्हे अपनी नज़रों से दिखाई पड़ती रहे और तदानानुसार तुम उसमे तुरंत सुधार कर सको |
और दुसरे छोड पर जो गठरी है उसमे दूसरों के पाप और गलतियाँ है जिसे पीछे रखना ताकि तुम्हे दूसरों की बुराई और पाप तुम्हे दिखाई ना दे और उसका तुम पर असर नहीं पड़ सके |
इंसान ख़ुशी ख़ुशी गठरी टंगे डंडे को लेकर पृथ्वी पर आ गया लेकिन गलती से उसने गठरी को अपने कंधे पर उल्टा रख लिया |
और नतीजा यह हुआ कि उसे तो दूसरों की गलती और पाप जो सामने की गठरी में थे वो दिखाई पड़ते थे |
लेकिन खुद की गलतियाँ और पाप उसे खुद को दिखाई नहीं पड़ती थी क्योकि उसने अपनी वाली गठरी को अपने पीठ के पिछले हिस्से में लटका रखी थी |
फलस्वरूप, लोग अब दूसरों की गलतियाँ और कामियों की आलोचना तो करने लगे लेकिन खुद की कमी देख नहीं पा रहे थे |

सही बात तो यह है कि जिसकी भी आलोचना होती है उसे दो बातों को लेकर ख़ुशी होनी चाहिए ….
पहली बात तो यह कि उसमे कुछ तो विशेषता है जिससे उसकी आलोचना की जा रही है | साधारणतया आलोचना अपनी गलतियाँ के कारण होती है| इसका मतलब है कि उन होने वाली गलतियों को सुधार करने का हमें मौका मिलता है और आगे वह गलती दोहराने से हम बच सकते है |
दूसरी बात यह कि आलोचना करने वाले को अपना दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त समझना चाहिए, क्योकि वो हमारी उन कमियों को दिखाता है जो हम स्वम् अज्ञानता के कारण नहीं देख पाते है |
इसलिए आलोचक को अपने पास रखिये और उससे नफरत न करें बल्कि सम्मान दीजिये क्योंकि वह आपकी भलाई का ही काम कर रहा है |
इसलिए हमें समझना होगा कि व्यर्थ की बातों में उलझे बगैर उस आलोचना पर विचार करना उचित है । उसे नजरअंदाज भी नहीं करना चाहिए बल्कि अपने विवेक के अनुसार कमी ढुंढते हुए जरूरी बदलाव करना चाहिए |
यही बदलाव हमें शिक्षित बनाते है … जिससे हमारे अंदर की शक्तियों को बल मिलता है। आलोचना के कारण हमें दुखी नहीं होना चाहिए बल्कि सोच, विचार कर अपने को बेहतर बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए |
इस विषय पर संत कबीर दास जी ने भी कहा है ….
निंदक नियरे राखिए , आँगन कुटी छवाय
बिन पानी , साबुन बिना निर्मल करे सुभाय…
इसका अर्थ यह है कि जो हमारी निंदा करता है उसे अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए | क्योकि उसकी आलोचना से हमें अपने दुर्गुणों का पता चलता है औए उन्हें हम दूर कर एक अच्छे इंसान बनते है /
हमारा स्वभाव और चरित्र बिना साबुन पानी के निर्मल हो जाता है …
आप का क्या विचार है…???

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Yes, you are absolutely right. The best way is to look at self, not to other flaws . Very positive thought. Thank you
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Yes sir, we should face criticism and correct accordingly..
Thank you sir, stay connected and stay happy..
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Very positive thought. It is rightly said that more we criticise others, the more we expose our weaknesses.
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Yes sir , this is universal truth..
thank you sir, stay connected and stay happy..
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Nice thought, inspirational
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Thank you dear. I think my writing is worth reading .
Stay connected and stay happy..
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