
बचपन के वो दिन भी क्या दिन थे …जब याद करता हूँ तो होठों पर मुस्कराहट बिखर जाती है |
जब हम बच्चे होते है तो हमारी इच्छा होती है कि हम जल्दी बड़े हो जाएँ | एक तो पढाई – लिखाई से छुटकारा मिल जाए और दूसरी तरफ खुद के पैसे कमा सके, जिससे अपने ज़िन्दगी की सारी इच्छाएं पूरी हो सके |
हम बड़े हो गए और पैसे भी कमाने लगे …लेकिन वह अपने आप से किये वादे भूल गए और पैसे कमाने में कुछ इस तरह व्यस्त हो गए कि सोचा पहले कुछ धन संचित कर लूँ फिर अपने सारे शौक पुरे करता रहूँगा |
इसी चक्कर में समय बीत जाता है और जवानी के बाद बुढापा आ जाता है, तब हम अफ़सोस करते है कि मैंने ज़िन्दगी अपने ढंग से जिया ही नहीं | आज पैसे तो है लेकिन मौज-मस्ती करने की वजह ही नहीं बची |
हम जब भी कभी अकेले में होते है तो अपने बचपन और बिताये गए उन छोटो छोटी लम्हों को याद करते है तो चेहरे पर बरबस मुस्कान बिखर जाती है |
आज जब मैं इस ब्लॉग को लिखने बैठा हूँ तो मेरे दिमाग में बचपन की वो पुरानी बातें और घटनाएँ याद आ रही है …. जिसे मैं आप सबों के साथ शेयर करना चाहता हूँ ….
वो हमारे बचपन के दिन थे | हमारे चारो तरफ गरीबी और अभाव का बोल बाला था .| .
लेकिन इन सबो के बाबजूद भी हमलोगों का यह दिमाग गरीबी और अभाव जैसे बातों को महसूस नहीं कर पाता था, वह तो अपने को राजा से कम समझता ही नहीं था |
अपने दोस्तों की एक टोली थी, दिमाग में हमेशा खुराफात चलते रहता था | कभी किसी बड़े – बुजुर्ग को छेड़ देते और जब वो गुस्से में हमलोग पर गलियां निकालते तो हमें बहुत मज़ा आता था |
आज तो कोई एक अपशब्द भी बोल दे तो गुस्से से रात भर नींद ही नहीं आती है |
सचमुच बचपन का समय ज़िन्दगी के सही आनंद को महसूस करने का समय होता है |

हालाँकि आज के परिवेश में बचपन की परिभाषा ही बदल गई है ..आज कल के बच्चे मोबाइल की दुनिया में खो गए है और हर चीज़ ऑनलाइन हो गया है | ..
उन्हें साथी दोस्तों के साथ दिन – दिन भर घर से बाहर रह कर धमाल करने का सुख नहीं मिल पा रहा है, जैसा कि हमारे ज़माने में हुआ करते थे |
खैर मैं अपने असली बात पर आता हूँ | बात उन दिनों की है जब मैं 7-8 साल का हुआ करता था और दोस्तों की हमारी एक टोली थी, जिसमे एक से एक खुराफात दिमाग वाले साथी थे |
होली के त्यौहार मनाने का एक अलग ही अंदाज़ था | किसी के घर से चोरी छुपे उसकी खाट को उठा कर अगजा में डाल दिया करते और जो घर अगजा के लिए गोइठा नहीं देता था …तो गुस्सा इतना कि उसके घर में हांड़ी में खुद का पाखाना फेक दिया करते थे |
यह बात और थी कि उसके बाद की पिटाई हमें महीनो याद रहती थी |
एक दिन हमारे घर में एक दूर के रिश्तेदार आये और जाते समय उन्होंने मुझे पाँच रुपया दिए | मैं घर में सबसे छोटा था इसलिए उस पैसे पर सिर्फ हमारा ही अधिकार था | अभाव में कट रही ज़िन्दगी में पाँच रुपया उस समय बहुत बड़ी रकम लगती थी |
मुझे ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा ..मैं अपने पैसे को हाफ पेंट की जेब में डाला और दोस्तों के बीच धौंस दिखाने के लिए चला गया |
सभी दोस्त आँखे फाड़ फाड़ कर मेरे पाँच रूपये को देख रहे थे | मैं कुछ पल के लिए अपने को राजा समझ रहा था और उनलोगों को अपनी प्रजा .|
तभी एक दोस्त राजू बोल पड़ा …चलो ,इन पैसों से सिनेमा देखा जाए | उन दिनों TV नहीं थे और सिनेमा हॉल ही सिनेमा देखने का जरिया था |
मैं उन दिनों एक छोटा क़स्बा “खगौल” में रहता था और वहाँ एक ही सिनेमा हॉल था ..”रेलवे सिनेमा” ,खगौल में , जहाँ अक्सर धार्मिक और पुरानी फिल्मे ही लगती थी |
लेकिन पहली बार इतने पैसे पॉकेट में आये थे तो नयी फिल्म देखने का सभी दोस्तों की इच्छा हुई .. और उसके लिए ट्रेन से पटना जाना पड़ता .|
बहुत माथा पच्ची करने के बाद यह फैसला हुआ कि इवनिंग शो (6–9) देखा जायेगा और दस बजे रात्री वाली ट्रेन से वापस आ जायेंगे |
हमलोग पांच दोस्त थे और टिकट का दर एक रुपया | बहुत मुश्किल के सभी के पॉकेट को झाड़ा गया तो मूंगफली खाने के पैसे का जुगाड़ हो पाया |

ट्रेन का टिकट तो लेने का सवाल ही नहीं था |
हमलोगों ने दानापुर स्टेशन से पाँच बजे वाली पैसेंजर ट्रेन पकड़ी , लेकिन ट्रेन को पटना पहुँचने में देर हो गई और स्टेशन पर ही छः बज गए थे |
जिस फिल्म को देखने की इच्छा थी वह “एलीफिस्टन” में लगी थी जो पटना स्टेशन से करीब डेढ़ किलोमीटर की दुरी पर थी |
हमलोग से पास एक्स्ट्रा पैसे नहीं थे कि बस से चल कर जल्दी पहुँचा जा सके | इसलिए यह तय किया गया कि यहाँ से दौड़ते हुए रास्ते को तय किया जाए और जल्द से जल्द पहुँचने की कोशिश करेंगे |
हम पाँचो की दौड़ शुरू हो गई , गजब की फुर्ती हुआ करती थी उन दिनों.– ..इस मैराथन दौड़ को अनुमान से कम समय में ही तय कर लिया गया |
लेकिन सिनेमा हॉल के बाहर पोस्टर पर देखा तो यह क्या ? …मैं तो देखने आया था फिल्म पाकीज़ा, हमलोग उन दिनों राज कुमार के फैन हुआ करते थे | उनके अदा के दीवाने थे | लेकिन यहाँ पोस्टर पर लिखा था …”हम पाँच” |
शुक्रवार दिन होने के कारण आज ही वो पहले वाली फिल्म बदल चुकी थी |
अब और कोई चारा नहीं था और हम पाँचो …”हम पाँच” फिल्म देख रहे थे | मूंगफली का स्वाद भी कुछ ठीक नहीं लग रहा था .. |
खैर, फिल्म समाप्त हुई और सिनेमा हॉल में भीड़ होने के कारण हॉल से बाहर निकलते हुए साढ़े नौ बज चुके थे और ट्रेन का समय पौने दस बजे का था |
फिर वही समस्या , पैदल ही स्टेशन पहुँचना था क्योकि सबके जेब खाली हो चुके थे |
फिर वही मैराथन दौड़ शुरू हुई | पैर तो जैसे अपने आप भाग रहे थे क्योकि अगर वह ट्रेन छुट गई तो फिर साढ़े ग्यारह बजे रात में ही दूसरी ट्रेन थी |
शायद पहले कभी इतनी तेज़ गति से लगातार डेढ़ किलोमीटर की दौड़ नहीं लगाई थी | किसी तरह स्टेशन पहुँचा तो देखा हमारी ट्रेन सिटी बजा चुकी है और ट्रेन धीरे धीरे प्लेटफार्म पर सरक रही है | हमलोगों ने फिर एक दौड़ लगाईं और ट्रेन पकड़ने की कोशिश की |

मेरे चारो साथी तो किसी तरह चलती ट्रेन में चढ़ गए | लेकिन जब मैं चढ़ने की कोशिश करने लगा तो बच्चा समझ कर वहाँ खड़े एक व्यक्ति ने मुझे रोक दिया और कहा ..चलती ट्रेन में चढ़ते हुए डर नहीं लगता है ? ..
मैं उस आदमी को ज़बाब देने के बजाये अपने दोस्तों को बस जाता हुआ देखता रहा | ट्रेन अपनी गति पकड़ चुकी थी ..उधर मेरे दोस्त मेरे लिए परेशान थे इधर मुझे उनसे बिछुड़ने का दुःख हो रहा था |
मैं किसी तरह उस आदमी से पीछा छुड़ा कर प्लेटफार्म के एक किनारे जाकर बैठ गया और सोचने लगा ..अब तो अगली ट्रेन “बॉम्बे जनता एक्सप्रेस” है जो रात के साढ़े ग्यारह बजे ही आएगी , तब तक हमें इंतज़ार करने के अलावा कोई उपाय नहीं था |
मैं प्लेटफार्म नम्बर दो पर चलती फिरती किताब और मैगजीन की दूकान ..जो “A. H. Wheeler” की हुआ करती और संयोग से अभी बंद थी |
उसी ठेले वाली दूकान के नीचे पीठ अड़ा कर ज़मीन में ही बैठ गया |
मैं बहुत थका हुआ था और वहाँ बैठते ही नींद आ गई | बचपन में नींद भी गहरी हुआ करती थी | मुझे होश नहीं था ..मैं तो घोडा बेच कर सो रहा था |
मेरी अचानक नींद खुली तो प्लेटफार्म पर टंगी बड़ी सी घड़ियाल को देखा तो रात के बारह बज रहे थे | मैंने सोचा ट्रेन शायद लेट हो गई है लेकिन प्लेटफार्म पर यात्रियों की भीड़ नहीं थी |
मैं अपनी शंका को मिटाने के लिए पास में खड़े चाय वाले से पूछा …’.बॉम्बे जनता” कितना लेट है ?
कितना लेट है ?…..मुझे घूरते हुए उसने बोला…वह तो कब की चली गई |
मुझे एहसास हो गया कि गाडी आ कर चली गई लेकिन मेरी नींद नहीं खुल सकी |
मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था और घर की चिंता भी सता रही थी क्योकि अब अगली गाड़ी सुबह के पांच बजे ही थी |
फिर आगे की कहानी क्या बताऊँ दोस्तों …सुबह जब घर पहुँचा तो अपनी जबरदस्त कुटाई हुई, वो कुटाई आज तक याद आती है | लेकिन दर्द की जगह चेहरे पर मुस्कान बिखर आती है ..क्योंकि —
बचपन के वे दिन भी क्या दिन थे..

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Categories: मेरे संस्मरण
Interesting one
I never had such thril in my childhood but your narration was very good.
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Yes dear, just compare the childhood of present to that of our days.. Finding the difference..
Thank you ..Stay happy..
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बहुत ही अच्छा लगा आपकी बचपन की कहानी पढ़कर चाचा।🙂 जब आप सिनेमा देखने गए तो बहुत हँसी आई हम पांचों दोस्त ने ‘हम पाँच’ देखी 😅 पर जब आप दोस्तो से बिछड़ गए और प्लेटफार्म पर सो गए तब थोड़ा उदास भी हुई। पर पूरी कहानी पढ़ते हुए एक हल्की सी मुस्कान चेहरे पर बरकरार रही। सच में आज भी बचपन को याद करें तो बहुत खुशी मिलती है। काश वो दिन में वापस ला पाते🙂💖
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बहुत बहुत धन्यवाद डिअर / बचपन की बहुत सी घटना ऐसी होती है जिसे बार बार याद कर
ख़ुशी का अनुभव करते है / ऐसी ही कुछ यादो को आपलोगों के साथ शेयर करने का प्रयास है
ताकि मेरे साथ साथ आपने चेहरे पर भी मुस्कान आये / आपके सहयोग के लिए आभारी है …
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जी चाचा बिल्कुल सही कहा😊 आपके बचपन की कहानी साझा करने और हमारे चेहरे और मुस्कान लाने के किये बहुत बहुत धन्यवाद🙂🙏
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Nice
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Nice blog
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thank you very much.. your words keep me going..
stay connected and stay happy..
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I am inviting for The Mystery Blog Award https://waybloggerss.com/2020/11/09/mystery-blogger-award/. Please accept the invitation.
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Yes, send me the procedure of participation..
Thank you…
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https://waybloggerss.com/2020/11/09/mystery-blogger-award/. Sir, click on this link (may be copy and paste needed) for the rules and procedures.
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ok dear.. thank you..
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Never blame anyone in your life,
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